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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - तृतीय उद्देशक
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(पगभिया) धृष्टतापूर्वक बेहिचक कामसेवन करते हैं । ( आहियं समाहि) ऐसे लोग बताए हुए समाधि के स्वरूप को ( न वि जाणंति) भी नहीं जानते । भावार्थ
इस संसार में जो मनुष्य ( साधक बनकर भी ) सुख के पीछे बेतहाशा दौड़ते हैं तथा अहर्निश ऋद्धि ( वैभव ), रस (स्वाद) और साता ( सुखसुविधा) के बड़प्पन के अहंकार में डूबे हुए हैं तथा पंचेन्द्रिय विषय-जनित कामभोगों में आसक्त हैं, वे इन्द्रियलोलुप लोगों के समान बेवड़क धृष्ट होकर कामसेवन करते हैं । ऐसे लोग कहने-सुनने पर भी समाधि या धर्मध्यान को नहीं समझते या जानना नहीं चाहते ।
व्याख्या
सुख-भोगों के पीछे जीवनसमाधि को न समझने वाले !
पिछली गाथा में रात्रिभोजनत्याग के सहित पंचमहाव्रतों को धारण करने की प्रेरणा दी गई है, परन्तु पंचमहाव्रतों का पालन कौन साधक कर सकता है ? इसे बताने के लिए शास्त्रकार इस गाथा में महाव्रतों के अयोग्य साधकों का वर्णन करते हैं जे इह सायाणगा समाहिमाहितं आशय यह है कि जो तुच्छ प्रकृति के मनुष्य इस संसार में ( साधुवेश धारण करके) परीषहों और उपसर्गों ( कष्टों एवं दु:खों) या इहलौकिक पारलौकिक विपदाओं से डरकर रातदिन सुखसुविधाओं (साता ) के पीछे दौड़ लगाते फिरते हैं, वैषयिक सुखों की तलाश में भागदौड़ करते रहते हैं, समृद्धि ( वैभव ), रस (स्वाद) और साता ( सुखसुविधाओं) के बड़प्पन (गौरव) के अहंकार में डूबे रहते हैं । वे कभी अपने भविष्य के विषय में सोचते ही नहीं, न उन्हें जीवननिर्माण की कोई चिन्ता है, दिनरात इच्छामदनरूप कामभोगों की तृष्णा में मूच्छित रहते हैं । वे इन्द्रिय-लम्पटों के समान धृष्टतापूर्वक निःसंकोच कामसेवन में रत रहते हैं । ऐश-आराम, आमोद-प्रमोद, सुख-सुविधाओं एवं रागरंग में मशगूल रहने वाले व्यक्ति महाव्रतों की साधना क्या खाक करेंगे ? वे यही समझते हैं कि जरा-सी ईर्ष्यामिति आदि का पालन नहीं किया तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा ? मूलव्रत तो सुरक्षित हैं, इन बाह्य क्रियाओं को नहीं किया तो कौन-सा मेरा संयम नष्ट हो जाएगा ? इस प्रकार प्रमादवश या सुखसुविधा में ग्रस्त होकर श्वेत वस्त्र या मणिमय भूमि की तरह समस्त संयम को मलिन और सच्छिद्र कर डालते हैं । ऐसे गर्वस्फीत एवं बाह्य सुखों के पीछे पागल बने हुए साधक किसी हितैषी के कहने-सुनने पर भी आत्मसमाधि या धर्मध्यान की बात को सुनना-समझना नहीं चाहते ।
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