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भावार्थ
इस लोक में जैसे व्यापारियों द्वारा सुदूर परदेशों से लाये हुए उत्तमोत्तम वस्त्र - रत्न आदि कीमती माल को बड़े-बड़े सत्ताधीश या धनाढ्य धारण ( खरीद) कर (ले) लेते हैं, वैसे ही आचार्यों द्वारा प्रतिपादित रात्रिभोजनत्यागवत के सहित उत्कृष्ट पाँच महाव्रतों को उच्चसाधक धारण करते हैं ।
व्याख्या
रात्रिभोजनविरतिसहित महाव्रतों का धारण क्यों और कैसे ?
सूत्रकृतांग सूत्र
पूर्वगाथा में कामिनी - संसर्ग-त्याग को मोक्ष का प्रधान कारण बताया है, अब उसी के सन्दर्भ में शास्त्रकार का आशय केवल ब्रह्मचर्य - महाव्रत ही नहीं, अन्य अहिंसा आदि महाव्रतों एवं रात्रिभोजनत्यागवत को भी साधक के लिए आवश्यक बताना है । इसी दृष्टि से शास्त्रकार वणिकों का दृष्टान्त देकर पंचमहाव्रत धारण का महत्त्व समझाते हैं- 'अग्गं वणिएहि " अक्खाया उ सराइभोयणा ।' आशय यह है कि जैसे बनियों द्वारा सुदूर देशों से लाये हुए प्रधान रत्न, वस्त्र, आभूषण, पात्र आदि को राजा-महाराजा आदि सत्ताधीश या ऐश्वर्यसम्पन्न धनाधीश लोग धारण करते हैं । इसी तरह आचार्यों द्वारा प्रतिपादित रात्रिभोजनत्यागवत के सहित रत्नतुल्य उक्त भौतिक रत्नों से भी बढ़कर महाव्रतरत्नों को योग्य साधक धारण करते हैं । निष्कर्ष यह है कि जैसे प्रधान रत्नों के भाजन राजा आदि हैं, वैसे ही महाव्रतरूपी रत्नों के भाजन ( पात्र ) महापराक्रमी श्रमण ही हैं, दूसरे नहीं । मूल पाठ
जे इह सायाणुगा नरा, अज्झोववन्ना कामेह मुच्छिया । किवणेण समं पराभिया, न वि जाणंति समाहिमा हितं ॥ ४ ॥ संस्कृत छाया ये इह सातानुगाः नराः, अध्युपपन्ना कामेषु मूच्छिताः कृपणेन समं प्रगल्भताः, नाऽपि जानन्ति समाधिमाख्यातम् ||४||
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अन्वयार्थ
( इह ) इस लोक में (जे नरा) जो मनुष्य ( सायाणुगा) सुखों के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं, (अज्झोववन्ना) ऋद्धि (वैभव ) रस (स्वाद) और साता ( सुखसुविधा) के गौरव में - अहंकार में डूबे हुए हैं, ( कामेहिं मुच्छिया ) इच्छाकाम एवं मदनकाम-भोगों में मूच्छित हैं, वे (किवणण समं ) इन्द्रिय-लम्पट लोगों के समान
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