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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक
जिसने कामिनीसंसर्गरूप महासागर को पार कर लिया, समझ लो, उसने संसारसागर को ही लगभग पार कर लिया। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं -'तम्हा उड्ढंति पासहा कामाइं रोगवं ।' अर्थात् स्त्रीसंसर्ग-त्याग के बाद ही मोक्ष (मुक्ति का सामीप्य) होता है, यह विचार करके देख लो। जिन महात्माओं ने कंचनकामिनी के कामों (इच्छाकाम ---- मदनकाम) को रोगसदृश जान-देख लिया है, वे भी मुक्तपुरुष के सदृश जीवनमुक्त-से ही कहे गये हैं। कहा भी है--
पुफ्फफलाणं च रसं सुराइ-मंसस्स महिलियाणं च ।
जाणंता जे विरया ते दुक्क रकारए वन्दे ॥ अर्थात्-जो व्यक्ति फलों एवं फलों का रस (तनिष्पन्न), मदिरादि, मांस एवं महिलाओं (के संसर्ग) को अनर्थ का कारण जानकर इनसे सर्वथा विरत हो गये हैं, उन दुष्कर कार्य करने वाले महान् पुरुषों को मैं वन्दन करता हूँ।
यहाँ 'तम्हा उड्ढंति पासहा' के बदले 'उड्ढं सिरियं अहे तहा' पाठान्तर भी मिलता है, जिसका अर्थ है--सौधर्म आदि ऊर्ध्व (देव) लोक में, तिर्यक्लोक में एवं भवनपति आदि अधोलोक में जो कामभोग विद्यमान हैं, उन्हें जो महाभाग रोग के सदृश जानते हैं, वे संसारसमुद्रोत्तीर्ण पुरुषों के समान कहे गये हैं।
मूल पाठ अग्गं वणिएहि आहियं, धारती राईणिया इहं । एवं परमा महत्वया अक्खाया उ सराइभोयणा ॥३।।
संस्कृत छाया अग्रं वणि रिभराहृतं धारयन्ति राजान इह एवं परमानि महाव्रतानि आख्यातानि सरात्रिभोजनानि ॥३॥
__अन्वयार्थ (इह) इस लोक में (वणिएहि) व्यापारियों के द्वारा (आहियं) सुदूर देशों से लाये हुए (अग्गं) उत्तमोत्तम माल पदार्थसमूह को (राईणिया) राजा, महाराजा, आदि सत्ताधीश या धनाढ्य (धारती) ले लेते हैं, ग्रहण कर लेते हैं --खरीद लेते हैं, (एवं) इसी प्रकार (अक्खाया) आचार्य द्वारा प्रतिपादित (सराइभोयणा) रात्रिभोजनविरमणव्रत के सहित (परमा महन्वया) उत्कृष्ट महाव्रतों को साधुपुरुष धारण कर लेते हैं।
१. एक विचारक ने कहा है
कामं कुलकलंकाय कुलजाताऽपि कामिनी । शृङ्खला स्वर्णजाताऽपि बन्धनाय न संशयः ।।
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