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________________ ३७४ सूत्रकृतांग सूत्र पुरुषों के (समं) समान (वियाहिया) कहे गये हैं। (तम्हा) इसलिए (उड्ढति) इस कामिनीपरित्याग के बाद ही (पासहा) मोक्षप्राप्ति होती है, यह देखो ! (कामाई) कामभोगों को जिन महासत्त्व साधकों ने (रोगवं) आत्मा के लिए रोग के समान (अदक्खु) देखा है, वे मुक्त के तुल्य हैं-जीवनमुक्त है। भावार्थ जो साधक कामिनियों से संसक्त-सेवित नहीं हैं, वे संसारपारंगत मुक्तपुरुष के सदृश कहे गये हैं। सचमुच कामिनीपरित्याग के बाद ही मुक्ति होती है, यह देखो ! जिन महासत्त्व साधकों ने कामिनीसंसर्ग या कामभोगों को रोग के समान जान-देख लिया है, वे मुक्तपुरुषों के तुल्य--जीवनमुक्तसे हैं। व्याख्या कामिनीसंसर्गत्याग ही मुक्तसदृश बनाता है साधक को मुक्ति प्राप्त करने में सबसे बड़ा रोड़ा है-कामिनी-संसर्ग अथवा कामवासना का संसर्ग। यह जब तक नहीं छूटता है, तब तक बाहर से चाहे कितने ही उच्च क्रियाकाण्ड कर ले, साधुवेष पहन ले, घोर तप कर ले, उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। अतः शास्त्रकार इसी बात को कहते हैं-'जे विन्नवणाहिऽजोसिया संतिन्नेहि समं वियाहिया ।' यहाँ विन्नवणा (विज्ञापना) शब्द कामिनी का द्योतक है। कामीपुरुष जिसके प्रति अपनी काम-कामना प्रगट करता है, अथवा जो कामसेवन के लिए अपना अभिप्राय प्रकट करती है, कामसेवन के लिए प्रार्थना-विज्ञपन—निवेदन करती है, इसलिए शास्त्रकार कामिनी को विन्नवणा (विज्ञापना) कहते हैं । जो महासत्त्व साधक विज्ञापनाओं - कामिनियों से संसक्त-सेवित नहीं हैं, जो कामिनियों के कामजाल से सर्वथा मुक्त हैं अथवा कामिनियों द्वारा होने वाले संयम-जीवन के नाश से जो बिलकुल असंसक्त हैं- बेलाग हैं, वे संसार-सागर को समुत्तीर्ण करने वाले मुक्तपुरुष के सदृश कहे गये हैं । यद्यपि संसार-सागर को अभी पार नहीं किये हुए हैं, तथापि वे निष्किचन और कंचन-कामिनी से संसर्ग से दूर तथा शब्दादि विषयों में अनासक्त होने के कारण संसारसागर के किनारे पर ही स्थित हैं। एक वैदिक विचारक ने कहा है-- वेधा द्वधा भ्रमं चक्रे, कान्तासु कनकेषु च । तासु तेष्वनासक्तः साक्षात् भर्गो नराकृतिः ॥ अर्थात्-विधाता (कर्मरूपी विधाता) ने दो भ्रम (संसारभ्रमण के कारण) पैदा किये हैं-- एक तो कामिनियों में और दूसरा कनक में । उन कामिनियों और उन धन-साधनों में जो आसक्त नहीं हैं, समझ लो, वह मनुष्य के आकार में वह साक्षात् परमात्मा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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