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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - तृतीय उद्देशक
भावार्थ
जिस भिक्षु ने आठ प्रकार के कर्मों का आगमन (आस्रव) रोक दिया है, उसको जो अज्ञानवश दुःखोत्पादक कर्मबन्ध हुआ है, वह संयम के अनुष्ठान से क्षीण हो जाता है । वे सद्-असद्विवेकी साधक सदा के लिए मरण का त्याग करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
व्याख्या
अज्ञानजनित कर्मापचय : संयम से इस गाथा में कर्मों के आगमन को रोकने का उपाय संयमानुष्ठान बताकर साधक को उसके दूरगामी सुपरिणाम से आश्वस्त किया है। जिस भिक्ष ने आठ प्रकार के कर्मों के आगमन ( आस्रव) के कारणभूत मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को रोक दिया है, उस साधु को अज्ञानवश जो दुःख - असातावेदनीय अथवा दुःख के कारणभूत आठ प्रकार के कर्म स्पृष्ट, बद्ध और नित्तरूप से उपस्थित (संचित ) हुए हैं, वे तीर्थंकरोक्त १७ प्रकार के सयम के अनुष्ठान से प्रतिक्षण नष्ट होते रहते हैं । आशय यह है कि जिस तालाब में पानी के आने का मार्ग बन्द है, उसमें पहले का रहा हुआ पानी जैसे सूर्य की किरणों के सम्पर्क से या जनता द्वारा व्यय करने से प्रतिदिन घटता- घटता एक दिन सूखकर समाप्त हो जाता है, वैसे ही जिस साधक ने आस्रव द्वार को बन्द कर दिया है तथा इन्द्रिय, योग और कषाय को रोकने में सदा सावधान रहता है, उस संवृतात्मा पुरुष के अनेक जन्मों के संचित अज्ञानजनित कर्म संयम के अनुष्ठान से क्षीण हो जाते हैं । वे सद्असद्विवेकी (पण्डित) साधक कर्मक्षय होने से मरणस्वभाव को तथा उपलक्षण से जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक आदि को सर्वथा यहीं छोड़कर (जन्म-मरण का चक्र यहीं समाप्त कर ) मोक्षधाम में जा पहुँचते हैं, जहाँ से वापिस लौटना नहीं होता है । यही इस गाथा का तात्पर्य है ।
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मूल पाठ
जे विनवणा हिजोसिया, संतिन्नेहि समं वियाहिया । तम्हा उड़दंति पासहा अदक्खु कामाइ रोगवं ||२|| संस्कृत छाया
ये विज्ञापनाभिरजुष्टाः संतीर्णैः समं व्याख्याताः । तस्माद् ऊर्ध्वं पश्यत, अद्राक्षुः कामान् रोगवत् || २ ||
अन्वयार्थ
(जे) जो साधक ( विनवणाह) कामवाञ्छा निवेदन करने वाली कामिनियों से ( अजोसिया ) सेवित नहीं हैं, वे ( संतिन्नहि ) संसार सागर को उत्तीर्ण कर्ममुक्त
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