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द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक
उपसर्ग-सहन द्वितीय अध्ययन का द्वितीय उद्देशक पूर्ण हो गया। अब तृतीय उद्देशक का प्रारम्भ करते हैं । द्वितीय उद्देशक के अन्त में कहा था कि पापों से विरत पुरुष संसारसागर को पार करते हैं। किन्तु पापों का अन्त तभी हो सकता है, जब साधक उपसर्गों एवं परीषहों की कसौटी में उत्तीर्ण हो जाय । अन्यथा उपसर्गों और परीषहों की सेना जब साधक पर आक्रमण करेगी, तब वह रोष, द्वेष, अभिमान, मद, काम, क्रोध, लोभ आदि के वश होकर पापों का अन्त करने के बदले पापों की आय पहले से अधिक बढ़ा लेगा। इसलिए तीसरे उद्देशक का अधिकार बताते हुए नियुक्तिकार ने यही कहा है कि परीषहों और उपसर्गों को सहने से अज्ञान जनित कर्मों का अपचय होता है, इसलिए साधक को इन दोनों को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। यही तीसरे उद्देशक में बताया गया है। जिसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है ---
मल पाठ संवुडकम्मस्स भिक्खुणो जं दुक्खं पुळं अबोहिए । तं संजमओऽवचिज्जई, मरणं हिच्चा वयंति पंडिया ॥१॥
संस्कृत छाया संवृतकर्मणः भिक्षोः यदुःखं स्पृष्टमबोधिना तत्संयमतोऽवचीयते, मरणं हित्वा व्रजन्ति पण्डिताः ।।१।।
___ अन्वयार्थ (संवुडकामस्स) अष्टविधकर्मों का आगमन जिसने रोक दिया है, (भिक्खुणो) ऐसे भिक्षाशील साधु को (अबोहिए) अज्ञानवश (जं दुक्खं) दु:ख का उत्पादक कठिन कर्म (पुट्ठ) बँध गया है, (तं) वह दुःखोत्पादक कर्म (संजमओ) सत्रह प्रकार के संयम-पालन से (अवचिज्जई) क्षीण हो जाता है । (पंडिया) और वे पण्डित साधक (मरणं) मरण का त्याग करके (वयंति) मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
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