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सूत्रकृतांग सूत्र
कि आत्मकल्याण तभी सम्भव है, जब आत्मकल्याण की बात पहले सुनी जाए, उस पर श्रद्धा की जाए और फिर उसका आचरण किया जाए। यद्यपि समस्त जगत् के तत्त्वों को हस्तामलकवत् देखने वाले सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर प्रभु ने जगत् के जीवों पर परम अनुग्रह और दया करके सामायिक आदि द्वादश अंगशास्त्रों का अर्थरूप से भलीभाँति निरूपण कर दिया था, किन्तु साधक उसे रुचिपूर्वक सुने तब न ? पहले तो सर्वज्ञवक्ता पर श्रद्धा ही नहीं होती, क्योंकि वे जिस मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं, वह मन्दमति, आडम्बरप्रिय एवं सरल और इन्द्रियविषयपोषका रास्ता ढूंढने वालों को अत्यन्त कठिन लगता है, इसलिए उस मार्ग को पहले तो कई साधक रुचिपूर्वक श्रद्धासहित सुनते नहीं, अगर कदाचित् सुन भी लें तो कड़वी दवा की तरह उस पर रुचि एवं श्रद्धा नहीं होती, जिसके कारण वे सुनकर भी तदनुसार आचरण नहीं कर पाते । यही कारण है कि शास्त्रकार ने श्रवण के पश्चात् भी आचरण के बिना आत्मकल्याण प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ बताया है ।
मल पाठ एवं मत्ता महंतरं धम्ममिणं सहिया बहूजणा । गुरुणो छंदाणु वत्तगा विरया तिन्नामहोघमाहियं ॥३२॥
त्ति बेमि ॥ संस्कृत छाया एवं मत्वा महदन्तरं धर्म मेनं सहिताः बहवो जनाः। गुरोश्छन्दानुवर्तकाः विरतास्तीर्णाः महौधमाख्यातम् ।।३२।।
इति ब्रवीमि ॥
अन्वयार्थ (एवं) इस प्रकार (मत्ता) मानकर (महंतरं) सबसे महान् (धम्ममिणं) इस आर्हद्धर्म को स्वीकार करके (सहिया) ज्ञानादिरत्नत्रय से सम्पन्न (गुरुणो छंदाणु वत्तगा) गुरु के अभिप्राय --अनुमति के अनुसार चलने (व्यवहार करने) वाले (विरया) पाप से रहित (बहूजणा) अनेक जनों ने (महोघं) इस संसारसागर को (तिन्ना) पार किया है, (आहियं) यह भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। (त्ति बेमि) ऐसा मैं तुमसे कहता हूँ।।
भावार्थ प्राणियों को कल्याण की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, यह जानकर तथा यह आर्हद्धर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ है, यह समझकर ज्ञानादिसम्पन्न, गुरु के के द्वारा उपदिष्ट मार्ग से चलने वाले पाप से निवृत्त बहुत-से लोगों ने इस
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