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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक है कि अगर साधक इस समय लापरवाह बनकर आत्मकल्याण की षट्सूत्री पर ध्यान न देकर इस अवसर को चक जाता है तो फिर उसे अवसर मिलना दुर्लभ है । प्रथम तो मनुष्यजन्म ही मिलना अत्यन्त दुष्कर है। यदि मनुष्यजन्म मिल भी गया तो आर्यदेश, उत्तमकुल, स्वस्थ शरीर, पाँचों इन्द्रियाँ. दीर्घ आयुष्य, शरीर में बल, उत्साह, फिर उत्तमधर्म का पाना तो अत्यन्त दुर्लभ है। उत्तमधर्म के मिलने पर भी मनुष्यत्व, शास्त्रश्रवण, श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) और फिर संयम में पराक्रम (धर्माचरण) करना अत्यन्त दुर्लभ है। इसीलिए शास्त्रकार ने आत्मकल्याण को दुर्लभ वताया है। क्योंकि उपर्युक्त सभी संयोग मिलने पर ही आत्म ल्याण की प्राप्ति हो सकती है, अगर इनमें से एक भी संयोग न मिला तो फिर आत्मकल्याण का पाना दुष्कर हो जाएगा। मूल पाठ णहि णणं पुरा अणुस्सुयं, अदुवा तं तह णो समुठियं । मुणिणा सामाइ आहियं, नाएणं जगसव्वदसिणा ॥३१।। संस्कृत छाया नहि नूनं पुराऽनुश्र तमथवा तत्तथा नो समनुष्ठितम् । मुनिना सामायिकाद्याख्यातं ज्ञातेन जगत्सर्वदर्शिना ॥३१॥ अन्वयार्थ (जगसव्वदंसिणा) समस्त जगत् को देखने वाले (मुणिणा) मुनिपुंगव (नाएणं) ज्ञातपुत्र भगवान् बर्द्धमान प्रभु ने (सामाइ आहियं) सामायिक आदि का प्रतिपादन किया है । (पूर्ण) निश्चय ही जीव ने (पुरा) पहले (णहि अणुस् सुयं) नहीं सुना है; (अदुवा) अथवा (तं) उसे (तह) जैसा कहा है, वैसा (णो समुट्ठियं) अनुष्ठान नहीं किया है। भावार्थ समस्त जगत् को जानने वाले ज्ञातपुत्र श्रमणशिरोमणि श्री वर्द्धमान प्रभु ने सामायिक आदि का कथन किया है, वास्तव में जीव ने उसे सुना ही नहीं है, यदि सुना भी है तो उन्होंने जैसा कहा है, वैसा यथार्थ रूप से आचरण नहीं किया है। व्याख्या सामायिक आदि का कितना श्रवण, कितना आचरण ? पूर्वगाथा में आत्मकल्याण की षट्सूत्री बताकर अन्त में आत्मकल्याण की दुर्लभता बतायी है। अब इस गाथा में उसी के सन्दर्भ में आत्मकल्याण के दुर्लभ होने का कारण बताते हैं---'णहि णूणं पुरा'... 'तह णो समुठ्ठियं ।' आशय यह है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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