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सूत्रकृतांग सूत्र
यहाँ 'अणहे' पाठान्तर भी मिलता है, जिसका अर्थ है - जो अघ अथवा पाप से - पापकर्म से रहित हो ।
सहिए - सहित के भी तीन अर्थ होते हैं -- ( १ ) साधु अपने हित के साथ रहे, (२) ज्ञानादि से युक्त रहे, (३) सत्कर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त होकर अपना हित सम्पादन करे |
सुसंवडे - साधु इन्द्रियों और मन से विषयतृष्णारहित होकर रहे । अपनी आत्मा की विषयतृष्णा से रक्षा करे, बचाए ।
धम्मट्ठी- श्रुत चारित्ररूप धर्म को ही साधु अपना प्रयोजन जाने, क्योंकि सज्जन पुरुष धर्मपालन की ही इच्छा रखते हैं ।
उवहाणवीरिए - जो आत्मा को मोक्ष के उप-समीप रखता है, वह उपधान-तप कहलाता है । साधु विविध बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण में अपनी शक्ति
लगाए ।
समाहिइ दिए - - साधु अपनी इन्द्रियों को समाहित - संयमित रखे। अगर साधु सांसारिक वस्तुओं पर मोह, ममता या आसक्ति रखता है, सांसारिक वस्तुओं की स्पृहा ( तमन्ना ) रखता है तो वह अपनी आत्मा को परिग्रह से भारी कर देगा, वह आत्मकल्याण के बदले पतन को न्यौता दे देगा । साधु यदि अपने हित ( आत्महित ) को न देखकर लोकेषणा के प्रवाह में बह जाएगा तो आत्महित किनारे लग जाएगा, उसकी की - करायी तपसंयम की साधना व्यर्थ हो जाएगी। इसी प्रकार यदि साधक इन्द्रियों व मन को विषयतृष्णा से रहित नहीं करेगा, तो वह अपनी आत्मा को विषयासक्ति से पचा नहीं सकेगा । ऐसा होने पर उसकी रातदिन विषयों की ओर दौड़ होगी, आत्मकल्याण दूर अतिदूर हो जाएगा । अगर साधक धर्म ( संवरनिर्जरारूप) से वास्ता न रखकर पुण्य के लुभावने कार्यों में फँस जाएगा या पाप व अधर्म को धर्म का मुलम्मा चढ़ाकर अपनाएगा, तो भी आत्मकल्याण स्थगित हो जाएगा । इसी प्रकार यदि आत्मार्थी साधक अपनी शक्तियों को बाह्य आभ्यन्तर तपश्चर्या में न लगाकर निन्दा, चुगली, विवाद, कलह, प्रमाद, कषाय आदि व्यर्थ के दुर्गुणों में लगा देगा तो आत्मकल्याण का अवसर चूक जाएगा, पापकर्मों के चक्कर में फँस जाएगा । इसी प्रकार वह जितेन्द्रिय होकर १७ प्रकार के संयम का अनुष्ठान न करके अहर्निश हिंसा आदि असंयम के कृत्यों में प्रवृत्त होगा तो आत्मकल्याण के बदले आत्मपतन की ओर अग्रसर होगा । इन सब कारणकलापों को देखते हुए निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि शास्त्रकार ने आत्मकल्याण के ये जो ६ सूत्र बताए हैं, वे वास्तव में उपादेय हैं, आचरणीय हैं। अगर शास्त्रकार की बात पर ध्यान न देकर साधक मनमाना चलेगा तो आत्मकल्याण की बात हवा में रह जाएगी। एक बार आत्मकल्याण का अवसर साधक चूक गया तो फिर उसे ऐसा अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है । यही बात शास्त्रकार कहते हैं - 'अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ ।' आशय यह
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