SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ सूत्रकृतांग सूत्र यहाँ 'अणहे' पाठान्तर भी मिलता है, जिसका अर्थ है - जो अघ अथवा पाप से - पापकर्म से रहित हो । सहिए - सहित के भी तीन अर्थ होते हैं -- ( १ ) साधु अपने हित के साथ रहे, (२) ज्ञानादि से युक्त रहे, (३) सत्कर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त होकर अपना हित सम्पादन करे | सुसंवडे - साधु इन्द्रियों और मन से विषयतृष्णारहित होकर रहे । अपनी आत्मा की विषयतृष्णा से रक्षा करे, बचाए । धम्मट्ठी- श्रुत चारित्ररूप धर्म को ही साधु अपना प्रयोजन जाने, क्योंकि सज्जन पुरुष धर्मपालन की ही इच्छा रखते हैं । उवहाणवीरिए - जो आत्मा को मोक्ष के उप-समीप रखता है, वह उपधान-तप कहलाता है । साधु विविध बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण में अपनी शक्ति लगाए । समाहिइ दिए - - साधु अपनी इन्द्रियों को समाहित - संयमित रखे। अगर साधु सांसारिक वस्तुओं पर मोह, ममता या आसक्ति रखता है, सांसारिक वस्तुओं की स्पृहा ( तमन्ना ) रखता है तो वह अपनी आत्मा को परिग्रह से भारी कर देगा, वह आत्मकल्याण के बदले पतन को न्यौता दे देगा । साधु यदि अपने हित ( आत्महित ) को न देखकर लोकेषणा के प्रवाह में बह जाएगा तो आत्महित किनारे लग जाएगा, उसकी की - करायी तपसंयम की साधना व्यर्थ हो जाएगी। इसी प्रकार यदि साधक इन्द्रियों व मन को विषयतृष्णा से रहित नहीं करेगा, तो वह अपनी आत्मा को विषयासक्ति से पचा नहीं सकेगा । ऐसा होने पर उसकी रातदिन विषयों की ओर दौड़ होगी, आत्मकल्याण दूर अतिदूर हो जाएगा । अगर साधक धर्म ( संवरनिर्जरारूप) से वास्ता न रखकर पुण्य के लुभावने कार्यों में फँस जाएगा या पाप व अधर्म को धर्म का मुलम्मा चढ़ाकर अपनाएगा, तो भी आत्मकल्याण स्थगित हो जाएगा । इसी प्रकार यदि आत्मार्थी साधक अपनी शक्तियों को बाह्य आभ्यन्तर तपश्चर्या में न लगाकर निन्दा, चुगली, विवाद, कलह, प्रमाद, कषाय आदि व्यर्थ के दुर्गुणों में लगा देगा तो आत्मकल्याण का अवसर चूक जाएगा, पापकर्मों के चक्कर में फँस जाएगा । इसी प्रकार वह जितेन्द्रिय होकर १७ प्रकार के संयम का अनुष्ठान न करके अहर्निश हिंसा आदि असंयम के कृत्यों में प्रवृत्त होगा तो आत्मकल्याण के बदले आत्मपतन की ओर अग्रसर होगा । इन सब कारणकलापों को देखते हुए निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि शास्त्रकार ने आत्मकल्याण के ये जो ६ सूत्र बताए हैं, वे वास्तव में उपादेय हैं, आचरणीय हैं। अगर शास्त्रकार की बात पर ध्यान न देकर साधक मनमाना चलेगा तो आत्मकल्याण की बात हवा में रह जाएगी। एक बार आत्मकल्याण का अवसर साधक चूक गया तो फिर उसे ऐसा अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है । यही बात शास्त्रकार कहते हैं - 'अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ ।' आशय यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy