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सूत्रकृतांग सू
रहना आवश्यक है । इन्हीं से दूर रहने की प्रेरणा प्रस्तुत गाथा में दी गयी है । आत्मा को समाधिभाव में रखने के लिए साधक सर्वप्रथम पूर्वभुक्त शब्दादि विषयों का स्मरण न करे, माया या अष्टविधकर्मोपाधि से मुक्त होने का मनोरथ करे ।
पणामए - जो प्राणियों को कुमार्ग की ओर झुका देते हैं, वे प्रणामक शब्दादि विषय हैं । समाधि के आकांक्षी आत्मार्थी साधक को न तो पूर्वभुक्त विषयों का स्मरण करना चाहिए और न भविष्य में उनकी प्राप्ति की चाह रखनी चाहिए । मन को उसे ज्ञानादि रत्नत्रय की आराधना एवं चिन्तन में संलग्न रखना चाहिए । अन्यथा खाली मन विषय कषायों में घुड़दौड़ लगाकर समाधि भंग कर देगा । इसलिए अष्टविधकर्मोपाधि से दूर रहने का चिन्तन व मनोरथ करना समाधि के लिए आवश्यक बताया है |
उवधि --- उपधि का अर्थ माया है । अथवा अष्टविध कर्म है, जो आत्मा के लिए उपधिरूप है ।
मूल पाठ
काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए । णच्चा धम्मं अणुत्तरं, कयकिरिए ण यावि मामए ॥ २८ ॥ |
संस्कृत छाया
नाथको भवेत् संयतः नो प्राश्निको न च संप्रसारकः । ज्ञात्वाधर्ममनुत्तरं कृतक्रियो न चापि मामकः ।।२८।।
अन्वयार्थ
( संजए ) संयमी पुरुष ( णो काहिए) विरुद्ध कथा न करे, ( णो पासणिए) प्रश्नों का फल बताने वाला न हो, ( ण य संपसारए) और न वृष्टि और धनोपार्जन के उपायों को बताने वाला हो । किन्तु ( अणुत्तरं ) सर्वोत्तम (धम्मं ) धर्म को (णच्चा) जानकर ( करिए) संयमरूप धार्मिक क्रिया का अनुष्ठान करे (ण यावि मामए) किसी वस्तु पर ममता न करे ।
भावार्थ
संयमी पुरुष विरुद्ध कथाकार न बने, न प्राश्निक - प्रश्नफल वक्ता न बने, और न ही सम्प्रसारक - यानी वर्षा, वित्तोपार्जन आदि के उपायों का निर्देशक बने, किन्तु श्रुत चारित्ररूप या क्षमादि दशविध अनुत्तर धर्म को जानकर संयमरूप क्रिया का अनुष्ठान करे। किसी भी वस्तु पर ममता न करे ।
संयमी पुरुष की जीवननीति
व्याख्या
इस गाथा में शास्त्रकार ने वाचिक एवं मानसिक संयम के लिए कुछ
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