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________________ ३६४ सूत्रकृतांग सू रहना आवश्यक है । इन्हीं से दूर रहने की प्रेरणा प्रस्तुत गाथा में दी गयी है । आत्मा को समाधिभाव में रखने के लिए साधक सर्वप्रथम पूर्वभुक्त शब्दादि विषयों का स्मरण न करे, माया या अष्टविधकर्मोपाधि से मुक्त होने का मनोरथ करे । पणामए - जो प्राणियों को कुमार्ग की ओर झुका देते हैं, वे प्रणामक शब्दादि विषय हैं । समाधि के आकांक्षी आत्मार्थी साधक को न तो पूर्वभुक्त विषयों का स्मरण करना चाहिए और न भविष्य में उनकी प्राप्ति की चाह रखनी चाहिए । मन को उसे ज्ञानादि रत्नत्रय की आराधना एवं चिन्तन में संलग्न रखना चाहिए । अन्यथा खाली मन विषय कषायों में घुड़दौड़ लगाकर समाधि भंग कर देगा । इसलिए अष्टविधकर्मोपाधि से दूर रहने का चिन्तन व मनोरथ करना समाधि के लिए आवश्यक बताया है | उवधि --- उपधि का अर्थ माया है । अथवा अष्टविध कर्म है, जो आत्मा के लिए उपधिरूप है । मूल पाठ काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए । णच्चा धम्मं अणुत्तरं, कयकिरिए ण यावि मामए ॥ २८ ॥ | संस्कृत छाया नाथको भवेत् संयतः नो प्राश्निको न च संप्रसारकः । ज्ञात्वाधर्ममनुत्तरं कृतक्रियो न चापि मामकः ।।२८।। अन्वयार्थ ( संजए ) संयमी पुरुष ( णो काहिए) विरुद्ध कथा न करे, ( णो पासणिए) प्रश्नों का फल बताने वाला न हो, ( ण य संपसारए) और न वृष्टि और धनोपार्जन के उपायों को बताने वाला हो । किन्तु ( अणुत्तरं ) सर्वोत्तम (धम्मं ) धर्म को (णच्चा) जानकर ( करिए) संयमरूप धार्मिक क्रिया का अनुष्ठान करे (ण यावि मामए) किसी वस्तु पर ममता न करे । भावार्थ संयमी पुरुष विरुद्ध कथाकार न बने, न प्राश्निक - प्रश्नफल वक्ता न बने, और न ही सम्प्रसारक - यानी वर्षा, वित्तोपार्जन आदि के उपायों का निर्देशक बने, किन्तु श्रुत चारित्ररूप या क्षमादि दशविध अनुत्तर धर्म को जानकर संयमरूप क्रिया का अनुष्ठान करे। किसी भी वस्तु पर ममता न करे । संयमी पुरुष की जीवननीति व्याख्या इस गाथा में शास्त्रकार ने वाचिक एवं मानसिक संयम के लिए कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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