SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - द्वितीय उद्देशक ३६५ निषेधात्मक सूत्र देकर संयमी पुरुष की जीवननीति स्पष्ट कर दी है । वाचिक संयम के लिए तीन सूत्र दिये हैं १ - संयमनिष्ठ मुनि विरुद्ध कथाकार न बने । २-संयमी साधु प्राश्निक न बने । ३ -- संयमप्रिय श्रमण सम्प्रसारक न बने । मानसिक संयम के लिए एक सूत्र दिया है १ - संयमी भिक्षु मामक - ममत्ववान न बने । प्रश्न होता है - संयमनिष्ठ जीवननीति के लिए ये चार निषेधात्मक सूत्र क्यों दिये गये ? इसका उत्तर हमें आगमों की गहराई में जाकर खोजना होगा । आगमों में साधु के लिए चार विकथाओं का निषेध है । वे विकथाएँ हैं -- (१) स्त्रीविकथा, (२) भोजनविकथा, (३) राजविकथा, (४) देशविकथा | विकथा का अर्थ होता है- विरुद्धकथा, ऐसी कथा, जिससे कामोत्तेजना भड़के, भोजनलालसा बढ़े, जिससे युद्ध, हत्या, दंगा, लड़ाई या वैमनस्य बढ़े तथा देश-विदेश के गलत आचार-विचारों के संस्कारों का जनमानस में बीजारोपण हो । ये चारों विकथाएँ संयमविरुद्ध कथाएँ हैं, जो वाचिक संयम के लिए वर्जित की गई हैं । इसी प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा इस प्रकार के लौकिक-सांसारिक वासना सम्बन्धी प्रश्नों --- जैसे कि मेरे देश में क्या होगा ? मेरे कितनी सन्तान होंगी ? अमुक वस्तु का भाव तेज होगा या मन्दा ? इत्यादि प्रश्नों का फल ज्योतिषी के समान न बताए । क्योंकि अगर इस प्रकार से प्रश्नों का फल बताने लगेगा तो साधक की आत्मसाधना खटाई में पड़ जाएगी । फिर बताने में कभी बताये गए से उलटा फल निकला तो प्रश्नकर्ता की श्रद्धा समाप्त हो जाएगी, उसकी दृष्टि में साधु का वचन असत्य ठहरेगा । स्वयं के सत्यमहाव्रत पर भी आँच आएगी । इन सब कारणों को लेकर वाणीसंयम की दृष्टि से यह सूत्र दिया कि संयमी साधु प्राश्निक न बने । इसी प्रकार संयमी साधु वर्षा तथा धनप्राप्ति के उपाय भी न बताए, न औषध, मंत्र - तंत्रादि बताए । क्योंकि ऐसा करने से आरम्भ - समारम्भ की वृद्धि होगी, तज्जनित हिंसा का भागी उपाय बताने वाला साधु भी बनेगा । साथ ही यदि साधु के द्वारा बताया हुआ कोई उपाय यथेष्ट फल न दे सका, तो उसके प्रति अविश्वास हो जाएगा। साधु के सत्यमहाव्रत पर भी आँच आएगी । इस प्रकार की दूकानदारी लगाने से साधु दुनियादार बन जाएगा, साधनाशील नहीं रह पाएगा । तथा मानसिक संयम के लिए शास्त्रकार ने बताया कि वह किसी भी वस्तु (चाहे वह धर्मोपकरण ही क्यों न हो ) पर ममत्व -- यह मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार का मेरापन न रखे । क्योंकि ममत्व होने में उसके वियोग में आर्तध्यान होगा, उसके न मिलने पर दुःख होगा, उसकी रक्षा की चिन्ता बढ़ेगी, उसके खत्म होने या चुराये Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy