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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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भलीभाँति निवृत्त हैं । परन्तु यथोक्त धर्म का अनुष्ठान करने वाले वे ही उन लोगों को सम्यक् धर्म में प्रवृत्त करते हैं, जो कुप्रावचनिकों एवं जामालि आदि साधकों की कुमार्गदेशना से हटे नहीं हैं। अथवा धर्म से विचलित या भ्रष्ट होते हुए को फिर वे धर्म में प्रवृत्त करते हैं। या यथोक्त धर्म का अनुष्ठान करने वाले ही परस्पर एक दूसरे को धर्म में प्रेरित करते हैं।
महगा महेसिणा - ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के ये दो विशेषण अन्वयार्थसूचक हैं। भगवान् महान् इमलिए हैं कि वे केवलज्ञान से सम्पन्न हैं, जिस केवलज्ञान का विषय महातिमहान् है। वे महर्षि इसलिए हैं कि अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करते हैं।
मूल पाठ मा पेह पुरा पणामए, अभिकखे उवधि धुणित्तए । जे दूमण तेहि णो णया, ते जाणंति समाहिमाहियं ।।२७।।
संस्कृत छाया मा प्रेक्षस्व पुरा प्रणामकान्, अभिकांक्षेद् उपधि धूनयितुम् । ये दुर्मनसस्तेषु नो नतास्ते जानन्ति समाधिमाहितम् ॥२७।।
अन्वयार्थ (पुरा) पहले भोगे हुए (पणामए) शब्दादि विषयों को (मा पेह) हृदय में स्मरण-अन्तनिरीक्षण मत करो। (उवधि) माया को अथवा ज्ञानावरणीय आदि उपधिरूप अष्टकर्मों को (धुणित्तए) दूर करने की (अभिकखे) इच्छा करो। (दूमण) मन को दूषित बनाने वाले जो शब्दादि विषय हैं, (तेहि) उनमें (जे) जो (णो णया) झुका हुआ--आसक्त नहीं है, (ते) वे पुरुष (आहियं) अपनी आत्मा में निहितस्थित (समाहि) समाधि--- रागद्वेष से निवृत्ति या धर्मध्यान को (जाणंति) जानते हैं ।
भावार्थ पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों का हृदय में निरीक्षण--स्मरण मत करो। माया को अथवा ज्ञानावरणीय आदि उपधिरूप अष्टकर्मों को नष्ट करने की इच्छा करो। मन को दूषित करने वाले शब्दादि विषयों में जो रत नहीं हैं। वे पुरुष अपनी आत्मा में निहित समाधि ... रागद्वे षनिवृत्ति या धर्मध्यान को जानते हैं।
व्याख्या
समाधि के मूलमंत्र साधुजीवन में केवल बाह्य आचार-पालन से काम नहीं चलता। साधु की आत्मसमाधि भंग करने वाले विषय, कषाय और तज्जनित कर्मोपाधि आदि से दूर
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