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सूत्रकृतांग सूत्र
अर्थात् - यह लोक (संसार) कपट से सिद्ध ( वश ) होता है । बिना कपट के संसार में कुछ प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इसलिए लोकव्यवहार के लिए पिता से भी कपट करना चाहिए ।
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इस प्रकार स्वच्छन्दाचार और कपटाचार उसके कर्त्ता को नरक - तिर्यंच आदि दुर्गतियों में ले डूबते हैं । कपट और स्वच्छन्दता के फलस्वरूप वे बार-बार कुगतियों में चक्कर लगाते रहते हैं ।
मायाचार और स्वच्छन्दाचार के दुष्परिणामों को बताकर शास्त्रकार कहते हैं- 'वियडेण पलिति वयसाऽहियासए ।' आशय यह है कि महान् मुनि इन दुष्परिणामों को जानकर माया एवं स्वच्छन्द से रहित शास्त्रोक्त शुद्ध आचार-विचार के द्वारा मोक्ष या संयम में लीन होते हैं । ऐसे शुभभावों से युक्त मुनि ही समस्त ठण्डे, गर्म या अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों को मन-वचन काया से समभावपूर्वक सहते हैं ।
मूल पाठ
कुजए अपराजिए जहा अक्खेहि कुसलेहि दीवयं । कडमेव गहाय णो कॉल, नो तीयं नो चेव दावरं ||२३||
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संस्कृत छाया
कुजयोऽपराजितो यथाऽक्षैः कुशलो हि दीव्यन् ।
कृतमेव गृहोत्वा नो कलिं नो त्रैतं नो चैव द्वापरम् ||२३||
अन्वयार्थ
( अपराजिए ) कभी पराजित न होने वाला ( कुसले हि ) कुशल (कुजए ) जुआरी ( जहा ) जैसे ( अवखेहि दीवयं ) पासों से जुआ खेलता हुआ ( कडमेव गहाय ) कृत नामक चतुर्थ स्थान को ही ग्रहण करता है, (णो कलि) कलि को ग्रहण नहीं करता, (नो तीयं नो चेव दाव रं) और न तृतीय स्थान को ग्रहण करता है, न द्वितीय स्थान को ।
भावार्थ
किसी से पराजित न होने वाला, जुआ खेलने में निपुण जुआरी जैसे जुआ खेलता हुआ सर्वश्रेष्ठ कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है, कलि, द्वापर और त्रेता नामक स्थानों को ग्रहण नहीं करता ।
व्याख्या
कुशल द्यूतकार द्वारा कृत नामक स्थान - ग्रहण
इस गाथा में चतुर जुआरी से मोक्षमार्गकुशलसाधक की उपमा देकर
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