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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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आच्छादित –ढकी या घिरी हुई (इमा पया) ये सांसारिक प्रजाएँ-(प्राणीगण) (छंदेण) अपने स्वच्छन्दाचार के कारण (पले) नरक आदि गतियों में जाती हैं, या लीन होती हैं। (माहणे) अहिंसामहाव्रती मुनि (विय डेण) कपटरहित अनुष्ठान - प्रवृत्ति के द्वारा (पलिति) मोक्ष या संयम में लीन होता है; और वह (वयसा) मनवचन-काया से (सी उण्हं) शीत और उष्ण को (अहियासए) सहन करता है।
भावार्थ अत्यन्त माया करने वाली मोह के आवरण से आच्छादित ये सांसारिक प्रजाएँ (जीव) अपने स्वेच्छाचार के कारण नरक आदि गतियों में जाती हैं, जाकर लीन होती हैं, किन्तु अहिसक साधू कपट रहित आचरण के कारण मोक्ष या संयम में लीन होता है; और मन-वचन-काया से शीत एवं उष्ण को सहन करता है।
व्याख्या
मायाचार और स्वेच्छाचार से साधु दूर रहे इस गाथा में शास्त्रकार साधु को मायाचार और स्वच्छन्दाचार से दूर रहने का उपदेश देते हुए सर्वप्रथम इनके दुष्परिणामों का निरूपण करते हैं - 'छंदेण पले...पाउडा।' इसका आशय यह है कि इस जगत् में विभिन्न देश-काल में पैदा होने वाले प्रजाजन अपने मनमाने विचार और आचार के कारण तथा गूढ़ मायाचार के कारण, अपनी मान्यता एवं स्वच्छन्द प्रवृत्ति के प्रति आसक्त होकर उन गाढ़ पापकर्मबन्धन के कारण नरक आदि गतियों में जाते हैं।
वास्तव में दुर्गति का कारण उनका स्वच्छन्द विचार और आचार ही है। वे मोहावृतबुद्धि वाले लोग 'अग्निष्टोमीयं पशुमालभेत' इत्यादि श्रुतिवाक्य को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करके बकरे आदि पशु का वध करना यज्ञ---अभीष्ट कल्याण का साधक मानते हैं। कई लोग धर्म के नाम पर या देवी-देवों के नाम से पशुओं को होमते हैं। वे लोग इस प्रकार का कार्य धृष्टतापूर्वक बेहिचक करते हैं। कई लोग अपनी मनमानी मान्यता से प्रेरित होकर अपनी तथाकथित (संस्था) संघ की रक्षा के नाम पर दासी-दास, धन-धान्य आदि का परिग्रह करते हैं। कोई-कोई भोले-भाले लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने और क्रियाकाण्डों का सब्जबाग दिखाकर उन्हें ठगने के लिए शरीर पर बार-बार पानी छींटना, कानों को स्पर्श करना आदि वंचना-मायाप्रधान प्रवृत्ति करते हैं । जैसा कि वे कहते हैं
कुक्कुटसाध्यो लोको नाकुक्कुटतः प्रवर्तते किंचित् । तस्माल्लोकस्यार्थे पितरमपि स कुक्कुटं कुर्यात् ॥
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