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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक ३५६ शास्त्रकार समझाते हैं- 'कुजए अपराजिए नो चेव दावरं ।' जुआरी को यहाँ 'कुजय' कहा गया है। क्योंकि जुआरी की महान् विजय होने पर भी वह विजय निन्दित होती है, इसलिए उसे 'कुजय' कहते हैं । जुआ खेलने में निपुण होने के कारण जो जुआरी दूसरे जुआरी से जीता नहीं जाता, उसे अपराजित कहा जाता है। यहाँ जुआरी की उपमा देकर यह कहा गया है कि कुशल अपराजेय जुआरी पासा या कौड़ी फकता है तो कृत नामक चतुर्थ स्थान को स्वीकार करता है, क्योंकि उससे विजय पाता है, बाकी के कलि, त्रेता, द्वापर नामक प्रथम, तृतीय, द्वितीय स्थानों को वह ग्रहण नहीं करता। कृत, वेता, द्वापर और कलि-ये वैदिक सम्प्रदाय-प्रसिद्ध चार युग माने जाते हैं । कृतयुग को सतयुग कहते हैं, वही सर्वश्रेष्ठ युग माना जाता है। ये चारों युग जैसे अमुक-अमुक अवधि के बाद आते हैं, वैसे ही ये चारों प्रति दिन क्रमशः आते हैं और अमुक-अमुक घड़ी तक रहते हैं। जुआरी कृतयुग की श्रेष्ठ घड़ी को स्वीकार करके उस घड़ी में जुए का दाँव खेलकर विजय पा लेता है। इन चारों का नामोल्लेख करने के पीछे शास्त्रकार का यही आशय प्रतीत होता है। उपमा एकदेशीय होती है, उसे सर्वांश में ग्रहण नहीं किया जाता। यही कारण है कि कुशल द्यूतकार लोकनिन्दित होते हुए भी उसकी कुशल साधक के साथ एकदेशीय उपमा केवल उसकी निपुणता और चतुरता की दृष्टि से दी गयी है। अब अगली गाथा में इस उपमा को उपमेय के साथ घटाते हैं -- मल पाठ एवं लोगम्मि ताइणा बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं गिण्ह हियंति उत्तमं कडमिव सेसऽवहाय पंडिए ।।२४।। संस्कृत छाया एवं लोके त्रायिणोक्तो यो धर्मोऽनुत्तरः तं गृहाण हितमित्युत्तमं कृतमिव शेषमपहाय पण्डितः ।।२४॥ अन्वयार्थ (एवं) इसी तरह (लोगम्मि) इस लोक में (ताइणा) जगत् के त्राता रक्षक सर्वज्ञ के द्वारा (बुइए) कथित (जे) जो (अणुत्तरे धम्मे, सर्वोत्तम धर्म है, (तं। उसे (गिण्ह) ग्रहण करना चाहिए। (हियंति उत्तम) वही हितकर तथा उत्तम है। (सेसऽपहाय) चतुर जुआरी जैसे समस्त स्थानों को छोड़कर (कडमिव . कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है। भावार्थ इस लोक में जगत् के त्राता सर्वज्ञ प्रभु ने जो क्षमा आदि सर्वोत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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