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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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कायोत्सर्ग के निमित्त रहेगा, तब उसे उपसर्गकर्ता भूत, पिशाच आदि भयंकर देव, विकराल सर्प, सिंह, व्याघ्र आदि तिर्यंच या भयंकर कर मनुष्य भी परम आत्मीय मित्रवत् प्रतीत होने लगेंगे तथा शीत-उष्ण आदि उपद्रव भी सुखपूर्वक सह्य हो जाएँगे । इसमें अभ्यास और विशिष्ट वैराग्यमय चिन्तन इन दो का ही प्रभाव है ।
मल पाठ उवणीयतरस्स ताइणो भयमाणस्स विविक्कमासणं । सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाणं भए ण दसए ॥१७॥
संस्कृत छाया उपनीततरस्य त्रायिणः, भजमानस्य विविक्तमासनम् । सामायिकमाहुस्तस्य यद् य आत्मानं भये न दर्शयेत् ।।१७।।
अन्वयार्थ (उवणीयतरस्स) जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुँचा दिया है, (ताइणो) तथा जो स्व-पर का उपकार करता है अथवा षड्जीवनिकाय की रक्षा करता है, (विविक्कमासणं) स्त्री-पशु-नपुंसक से रहित एकान्त शान्त स्थान का जो (भयमाणस्स) सेवन करता है, (तस्स) उस मुनि का (जं सामाइयमाहु) सर्वज्ञों ने जो सामायिक चारित्र कहा है, वह इसलिए कि (जो अप्पाण) वह अपने (आत्मा) में (भए ण दसए) भय प्रदर्शित नहीं करना चाहिए।
भावार्थ जिसने अपनी आत्मा को ज्ञान आदि में अतिशयरूप से स्थापित किया है, तथा जो स्वपर का उपकारी या प्राणिमात्र का रक्षक है, और जो स्त्रीपशु-नपंसक से रहित स्थान का सेवन करता है, ऐसे मुनि का सर्वज्ञों ने जो सामायिक चारित्र कहा है, वह इसलिए कि मुनि उपसर्गों के समय अपनी आत्मा को भय में स्थापित न करे।
व्याख्या
विविक्तासनी निर्भय ही सामायिकचारित्री है जो मुनि जनसंसर्ग से दूर रहकर अपनी साधना करना चाहता है, उसे अपना निवासस्थान एकान्त और स्त्री-पशु-नपुसक से वजित शान्त चुनना पड़ता है। परन्तु ऐसे स्थान में अनेक प्रकार के भयस्थल (खतरे) होते हैं, उन खतरों का वही साधक मुकाबला कर सकता है, जो अपनी आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र को अतिशयरूप से रमा लेता है, तथा जो प्राणिमात्र का रक्षक एवं उपकारी है।
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