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________________ ३५२ सूत्रकृतांग सूत्र रत्नत्रय के प्रकाश में वह उन भयों को भय ही नहीं मानेगा । जब आत्मा रत्नत्रय के प्रकाश से दूर रहती है, तब वहाँ भय, क्रोध, काम आदि के कीटाणु आकर अड्डा जमा लेते हैं, परन्तु जब आत्मा रत्नत्रय के प्रकाश को अपने अत्यन्त निकट रखती है। तो भय आदि के कीटाणु आ नहीं सकते, ऐसे निर्भीक और विविकशयनासन के सेवन करने वाले मुनि के चारित्र को ही सर्वज्ञों ने सामायिक कहा है । शास्त्रकार इसी बात को द्योतित करते हैं - 'उवणीयतरस्स' " अप्पाणं भए ण दंसए ।' उवणीयतरस्स - उपनीततर का अर्थ है - जिसने आत्मा को ज्ञान-दर्शनचारित्र ( रत्नत्रय ) के अत्यन्त निकट पहुँचा दिया है । क्योंकि जिसकी आत्मा ज्ञानादि रत्नत्रय के प्रकाश के अतिनिकट होती है, वही उपसर्गों एवं परीषहों के समय निर्भय एवं निश्चल रह सकता है, वही जनशून्य स्थानों में रहने से नहीं कतराता । अप्पार्ण भए ण दंसए - इसका रहस्यार्थ यह है कि जो ज्ञानादि रत्नत्रय के प्रकाश को आत्मा से निकटतम कर लेता है, वह अपनी आत्मा को भय नहीं दिखाता। जिसकी आत्मा में रत्नत्रय का प्रकाश नहीं होता या दूर होता है, वह अपनी आत्मा (दिल-दिमाग ) को भय का प्रदर्शन करके -- अनेक भयों के विकल्पों से भरकर भय दिखाता रहता है । मूल पाठ उसिणोदगतत्तभोइणो, धम्मट्ठियस्स मुणिस्स हीमतो । संसग्गि असाहु राह, असमाही उ तहागयस्स वि || १८ || संस्कृत छाया उष्णोदकतप्तभोजिनो धर्मस्थितस्य मुनेर्हीमतः । संसर्गोऽसाधू राजभिरसमाधिस्तु तथागतस्याऽपि ।। १८ ।। अन्वयार्थ ( उ सिणोदगतत्तभोइणो) बिना ठण्डा किये गर्म जल पीने वाले (धम्मट्ठियस्स) श्रुत और चारित्रधर्म में स्थित, ( हीमतो ) असंयम में प्रवृत्ति से लज्जित होने वाले, ( सुणिस्स) मुनि को (राइहि) राजा आदि से ( संसग्गि ) संसर्ग करना ( असाहु ) बुरा है | ( हायस्स वि) वह शास्त्रोक्त आचार पालने वाले मुनि का भी ( असमाही उ ) समाधिभंग करता है । भावार्थ उष्ण किये हुए जल को गर्म ही पीने वाले, श्रुत-चारित्रधर्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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