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सूत्रकृतांग सूत्र
संस्कृत छाया नाभिकांक्षेत जीवितं, नाऽपि च पूजनप्रार्थकः स्यात् । अभ्यस्ता उपयन्ति भैरवाः शून्यागारगतस्य भिक्षोः ।।१६।।
अन्वयार्थ (जीवियं) जीवन की (णो अभिकखेज्ज) आकांक्षा न करे, (नोऽवि य) और न ही (पूयणपत्थए) पूजा-सत्कार का प्रार्थी ----अभिलाषी (सिया) बने । (शुन्नागारगयस्स) शून्यगृह में गये (रहे) हुए (भिक्खुणो) साधु को (भेरवा) भयंकर प्राणियों के उपसर्ग-उपद्रव (अब्भत्थं) अभ्यस्त-परिचित (उविति) हो जाते हैं ।
भावार्थ पूर्वोक्त उपसर्गों से पीड़ित होने पर साधु (जिनकल्पिक महामुनि) जीवन की आकांक्षा न करे और न ही पूजा-सत्कार (मान-बड़ाई) का अभिलाषी (प्रार्थी) हो। इस प्रकार पूजा-प्रतिष्ठा और जीविताकांक्षा से निरपेक्ष होकर शून्यगह में जो साधु रहता है, उसे भयानक प्राणियों के द्वारा कृत उपसर्गों को सहने का अभ्यास हो जाता है ।
व्याख्या जीवन और पूजा-प्रतिष्ठा की आकांक्षा से दूर ही अभ्यस्त
पूर्वगाथा में शून्यगृह में उपस्थित जिनकल्पिक महामुनि द्वारा विविध उपसर्गों को रोमहर्पण आदि विकारों से रहित होकर समभाव से सहन करने का निर्देश है। इस गाथा में उसी के सन्दर्भ में कहा गया है कि ऐसे विविध भयंकर उपसर्गों को सहने में अभ्यस्त कैसे और कौन हो सकता है ? इसके लिए दो कड़ी शर्ते रखी गयी हैं—पहली शर्त यह है कि वह जीवन की बिल्कुल परवाह न करे, और दूसरी शर्त है -- पूजा-प्रतिष्ठा -- मान-सम्मान की कामना न करे। इन दोनों कठोर शों का पूर्णत: पालन करना सामान्य साधु के वश की बात नहीं है। वह तो उपसर्गों के कल्पित भय से ही घबराकर विचलित हो सकता है। इसलिए इन गाथाओं में जो बातें कही गयी हैं, वे जिनकल्पी मुनि से सम्बन्धित हैं। अतः जिनकल्पिक मुनि जब इन दोनों कठोर शर्तों में उत्तीर्ण हो जाएगा, तब यदि वह शून्यगृह, उपलक्षण से श्मशान आदि भयानक स्थानों में कायोत्सर्ग आदि के निमित्त जाकर निवास करेगा तो वह बिलकुल घबराएगा नहीं, वह उन भयानक उपसर्गों से अभ्यस्त हो जाएगा । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं -- 'अब्भत्थमुवति भेरवा सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो।' आशय यह है कि पूर्वोक्त दो कड़ी शर्तों का पालन करने वाला महामुनि जब बार-बार शून्यगृह, श्मशान आदि एकान्त स्थलों में जाकर
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