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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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मूल पाठ जत्थऽत्थमिए अणाउले समविसमाइं मुणीऽहियासए। चरगा अदुवावि भेरवा, अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥१४॥
संस्कृत छाया यत्राऽस्तमितः अनाकुल: समविषमाणि मुनिरधिसहेत। चरका अथवाऽपि भैरवा:, अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः ।।१४।।
__ अन्वयार्थ (मुणी) धर्माचरणपरायण साधु (जत्थ) जहाँ (अत्थमिए) सूर्य अस्त हो, वहीं (अणाउले) अनाकुल.... क्षोभरहित होकर रह जाए । तथा (समविसमाई) अनुकल या प्रतिकूल आसन, शयन, स्थान आदि का परीषह (अहियासए) सहन करे। (चरगा) यदि वहाँ मच्छर, डांस आदि हों, (अदुवावि भेरवा) अथवा भयंकर उपद्रवी प्राणी हों तो भी (अदुवा) अथवा (तत्थ) वहाँ (सरीसिवा सिया) साँप आदि जन्तु हों तो भी वह वहीं रहे।
भावार्थ मुनिधर्मपालक साधु जहाँ सूर्य अस्त हो जाय, वहीं व्याकुल हुए बिना रह जाए । वहाँ जो भी अनुकूल या प्रतिकूल स्थान, शयन, आसन आदि का परीषह उपस्थित हो, उसे समभावपूर्वक सहन करे। यदि वहाँ उड़ने वाले मच्छर आदि जन्तु हों या भयंकर उपद्रवी प्राणी हों, अथवा वहाँ साँप आदि विषैले जीव हों तो भी (एक रातभर के लिए तो) वहीं रहे।
व्याख्या
जहाँ सूर्य अस्त, वहीं साधु का निवास साधु विहरणशील होता है । वह बिना किसी शरीरादि कारण के एक जगह जमकर नहीं रह सकता। विहार करते-करते रास्ते में जहाँ भी सूर्य अस्त हो जाय, वहीं ठहर जाना चाहिए। प्रश्न हो सकता है, ऐसा नियम क्यों ? सूर्यास्त हो जाने के बाद भी जहाँ तक कोई बस्ती या गाँव न आ जाए, वहाँ तक चले तो क्या आपत्ति है ? जैनागम इसका यह समाधान देते हैं कि अगर साधु रात्रि को चलेगा तो अँधेरे में साँप, बिच्छ या जंगली जानवर नहीं दिखाई देंगे, अन्य छोटे-छोटे कीड़े आदि दृष्टिगोचर नहीं होंगे, ऐसी स्थिति में वे जीव उसके पैरों के नीचे कुचले जाने सम्भव हैं, उनका स्पर्श होते ही साँप आदि उसे काट भी सकते हैं, सिंह, चीते, व्याघ्र, भेड़िये आदि हिंस्र जीव उस पर आक्रमण भी कर सकते हैं, चोर आदि भी
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