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सूत्रकृतांग सूत्र
बैठते हैं और उससे ऊटपटांग प्रश्न पूछने लगते हैं, उस समय साधु क्या कहे, क्या न कहे ? इस सम्बन्ध में तो शास्त्रकार ने तो स्पष्ट कहा है- 'पुट्ठे ण उदाहरे वयं ।' अर्थात् किसी के द्वारा कुछ पूछे जाने पर बोले नहीं । किन्तु बिलकुल न बोलने पर कदाचित् लोग कुपित होकर उसे मारें, पीटें, सताएँ, उस समय समभाव से सहन करने की शक्ति न हो तो क्या करे ? इसी बात को दृष्टिगत रखकर वृत्तिकार जिनकल्पिक साधु के लिए तो बिलकुल न बोलने को उचित कहते हैं, किन्तु स्थविरकल्पिक साधु के लिए वे कहते हैं-- ' तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद् धर्मादिकं मार्ग वा पृष्टः सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेन ब्रूयात्' - - अर्थात् वहाँ या अन्यत्र स्थित साधु से यदि कोई व्यक्ति धर्म आदि के विषय में पूछे या परिचय अथवा मार्ग पूछे तो सावद्य ( पापयुक्त) वचन न बोले । 'आभिग्रहिको जिनकल्पिकादिनिरवद्यामपि न ब्रूयात् । ' - किन्तु अभिग्रहधारी या जिनकल्पिक आदि साधु हो तो वह निरवद्य वचन भी न बोले, अर्थात् बिलकुल न बोले ।
उस सूने मकान में कूड़ा-कर्कट या मलबा पड़ा हो, घास का ढेर पड़ा हो या और कई चीजें अस्त-व्यस्त पड़ी हों तो क्या साधु को उस मकान की सफाई करनी चाहिए ? क्या रजोहरण से उसका प्रमार्जन करना चाहिए या अस्त-व्यस्त पड़ी हुई चीजों को उठाकर एक जगह तरतीब से जमा देना चाहिए या क्या करना चाहिए ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं - 'ण समुच्छे, णो संथरे तणं ।' अर्थात् --साधु उस सूने मकान को न तो ( रजोहरण आदि से ) झाड़े - बुहारे और न किन्हीं अस्तव्यस्त पड़ी चीजों को उठाकर एकत्रित करे, न ही वहाँ तृण आदि का संथारा ( बिछौना) बिछाए । इस निषेध का कारण यह है कि साधु यदि वहाँ सफाई करने लगेगा तो वर्षों से बसेरा किये हुए जीवों का सफाया होने की सम्भावना है, अस्तव्यस्त पड़ी हुई चीजों में या घास आदि में भी बहुत-से जीव-जन्तुओं के होने की सम्भावना है, इसलिए अहिंसाधर्मी साधु न सफाई करे, न घास का संस्तारक बिछाए । घास के संस्तारक बिछाने का निषेध किया गया है, तो क्या कंबल या अन्य आसन वहाँ बिछा लेने में क्या आपत्ति है ? जिनकल्पिक साधु निर्वस्त्र रहते हैं, इसलिए वे काष्ठपट्ट या घास आदि के सिवाय और किसी चीज का संस्तारक नहीं कर सकते । शास्त्रकार “यहाँ जिनकल्पिक दृष्टि से ही तृणसंस्तारक बिछाने का निषेध करते हैं । इसलिए इस गाथा का यदि स्थविरकल्पिकपरक अर्थ करते हैं तो यही हो सकता है कि घास ही क्या, किसी भी चीज का बिछौना ( शयनासन) साधु वहाँ नहीं करे । वृत्तिकार कहते हैं- 'कोई अभिग्रहिक साधु अपने शयन के निमित्त तृणशय्या भी न बिछाए, फिर कम्बल आदि की शय्या की तो बात ही क्या है ?" "
१. 'नाऽपि शयनार्थी कश्चिदाभिग्रहिकः तृणादिकं संस्तरेत्, तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यात् किं पुनः कम्बलादिना ?' - शीलांकाचार्यकृत वृत्ति
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