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________________ ३४८ सूत्रकृतांग सूत्र उन पर हमला कर सकते हैं। अथवा चोर, डाकू आदि होने के सन्देह में कोई राजकर्मचारी उसे गिरफ्तार करके हैरान भी कर सकते हैं। इस प्रकार रात के अँधेरे में चलते रहने से अन्य जीवों की विराधना के साथ-साथ आत्मविराधना भी हो सकती है। इसी अहिंसादृष्टि के कारण रात्रिविहार साधु के लिए निषिद्ध किया गया है। दूसरा प्रश्न होता है-स्र्य अस्त होते-होते साधु ऐसी जगह पहुँच गया, जो बड़ी ऊबड़-खाबड़ है, भयावना जंगल चारों ओर है, अथवा वहाँ मच्छरों आदि का उपद्रव है या वहाँ अच्छी तरह देखभाल करने भी रात्रि में चींटे या अन्य जन्तु निकल आएँ, ऐसी स्थिति में साधु क्या करे ? कहाँ जाए ? या साधु को जंगल में देख कर सरकारी आदमी तंग करें, अथवा कोई जंगली जानवर आकर उपद्रव करें, या कोई उस स्थान का निवासी व्यन्तरदेव आकर साधु को हैरान करे, तो वह रात्रि में अन्यत्र जाए या नहीं ? शास्त्रकार इसका मुनिधर्ममर्यादा की दृष्टि से समाधान करते हुए कहते हैं- "जत्थ अत्थमिए अणाउले... . . . . . . . तत्थ सरीसिवा सिया।" आशय यह है कि चाहे वहाँ स्थान ऊबड़-खाबड़ हो, अनुकूल या प्रतिकूल सर्दी, गर्मी, वर्षा, आँधी तथा अन्य परीषह उपस्थित हों, वहाँ मच्छर आदि भी बहुत हों, अथवा विकराल हिंस्र जन्तुओं का उपद्रव हो, या साँप, बिच्छू आदि जहरीले जन्तु भी निकल आएँ, सूर्य अस्त होने के बाद किसी भी हालत में माधु अन्यत्र न जाए, उन जीवों पर राग-द्वेष किये बिना समभावपूर्वक सहन करे । समभावपूर्वक परीषह सहन करने से कर्मों की निर्जरा ही होगी। यदि मन में विषमता या व्याकुलता लाकर हायतोबा मचाई या कष्ट सहने में कायर बनकर उन जीवों के प्रति द्वेष किया या रात में वहाँ से अन्यत्र चले गये तो कर्मबन्धन होगा, हिंसा का दोष भी होगा तथा कर्मनिर्जरा के अवसर से वह वंचित हो जाएगा। हाँ, वह दिन रहते किसी अन्य स्थान का चुनाव कर सकता है, किन्तु रात हो जाने के बाद तो वहीं रहकर अनाकुलतापूर्वक रात बितानी चाहिए। मूल पाठ तिरिया मणुया य दिव्वगा, उवसग्गा तिविहाऽहियासिया । लोमादीयं ण हारिसे, सुन्नागारगओ महामुणी ।।१५।। ___ संस्कृत छाया तैरश्चान् मानुषांश्च दिव्यगान् उपसर्गान् त्रिविधानधिसहेत। रोमादिकमपि न हर्षयेत्, शून्यागारगतो महामुनिः ।।१५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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