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________________ ( ३८ ) साधकों की माया, पाप-कर्म करना और उसे छिपाना दोहरा पाप है, व्यभिचारिणी स्त्रियों द्वारा जाल में फंसाने का प्रयत्न, साधक उन प्रलोभनों से दूर रहे। द्वितीय उद्देशक : शीलभ्रष्ट पुरुष की दशा ५४७-५७१ भोगकामना ज्ञानबल से हटाए, भोगों में मूच्छित स्त्री-आसक्त साधु की विडम्बना, कामुक स्त्री द्वारा साधु को वचनबद्ध करने का तरीका, नारी वशीभूत साधु के साथ नौकर-सा व्यवहार, स्त्री नौकर की तरह तुच्छ कार्यों में जुटाए रखती है, स्त्री-मोहित की विडम्बना, वशीभूत साधु से स्त्री की मांग पर मांग, पुत्र उत्पन्न होने पर तो और अधिक गलाम, स्त्रीदास कौन-सा नीच कार्य नहीं करते ? स्त्री-दास अतीत में कैसे थे, क्या थे ? स्त्री-संसर्ग त्याग की प्रेरणा, स्त्री-संसर्ग ही नहीं, स्त्री-पशु संस्पर्श से भी दूर रहे, अनगार परक्रिया का त्रियोग से त्याग करे, अन्तिम उपदेश । पंचम अध्ययन : नरकवि भक्ति : ५७२-६६३ प्रथम उद्देशक : नरक विभक्ति ५७२-६०७ अध्ययन का संक्षिप्त परिचय, नरक : क्या, क्यों और कैसे ? नरक विभक्ति नाम क्यों ? नरक के सम्बन्ध में जिज्ञासा, नरक के सम्बन्ध में भगवान महावीर का संक्षिप्त उत्तर, कौन, क्यों और कैसे नरक में जाते हैं, हिंसक, चोर आदि पापियों को नरक का दण्ड, परमाधार्मिकों के भयंकर शब्द सुनकर संज्ञाहीन नारक, नरक की तप्त भूमि का स्पर्श कितना दुखदायी ?, वैतरणी की तेज धार में कदने को बाध्य नारक, कंठ में कीलें चुभाने वाले ये परमाधार्मिक !, परमाधार्मिकों का कर व्यवहार, नरक की भयंकरता कितनी ?, गुफामय आग में सदा जलते हुए ये नारकी, नारकों पर कहर बरसाने वाले क्रूरकर्मी नरकपाल, संतक्षण नरक में कुल्हाड़ा लिए हुए परमाधार्मिक, छटपटाते नारकों को गर्म रक्तपूर्ण कड़ाही में, न भस्मीभूत, न मृत फिर भी चिरकाल तक दुखित, एक तो नरक का ताप, उस पर नरकपालों का सन्ताप, नरक के जीवों का भयंकर हाहाकार और दुःख, दिये गये दण्ड के अनुसार ही दण्ड, कितनी गन्दी नरक भूमि में निवास ? दुखों और सन्तापों से भरा नरकालय, परमाधार्मिकों द्वारा अंगों का छेदन और उत्पीड़न, नारकों के अंगों से रक्तादि-स्राव एवं आर्तनाद, रक्त और मवाद से पूर्ण कुम्भी कैसी और कितनी बड़ी, प्यास बुझाने के लिए पिघला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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