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________________ ३३८ सूत्रकृतांग सूत्र (विद्ध' सणधम्ममेव ) नश्वर स्वभाव है, ( इति विज्जं ) ऐसा जानने वाला ( को ) कौन साधक पुरुष ( अगार) गृहवास में ( आवसे) निवास कर सकता है । भावार्थ ममत्व किये हुए सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थ एवं स्वजनवर्गरूप परिग्रह इस लोक में दुःखप्रद हैं और परलोक में भी अत्यन्त दुःखदायक हैं; यह समझ लो | वह परिग्रहजन्य पदार्थसमूह नश्वरस्वभाव है, ऐसा जानने वाला कौन विज्ञपुरुष परिग्रह के भण्डार गृहवास में निवास कर सकता है ? व्याख्या उभयलोक दुःखप्रद परिग्रह में अनासक्ति ही हितावह पूर्वगाथा में ममत्वत्याग का उपदेश दिया गया है । इस गाथा में ममत्वयुक्त सांसारिक पदार्थ और स्वजनवर्ग आदि को इहलोक - परलोक में दुःखावह बताकर उनसे दूर, निर्लिप्त एवं अनासक्त रहने का उपदेश दिया गया है । सांसारिक पदार्थ धन, स्वर्ण, चांदी आदि पदार्थ इस लोक में क्यों दुःखप्रद हैं, उनसे तो अनेक प्रकार की सुख-सुविधाएँ जुटाई जा सकती हैं ? इसके उत्तर में नीतिकार कहते हैं अर्थानामर्जने दुःखमजितानां च रक्षणे । आये दुखं व्यये दुःखं धिगर्यो दुःखभाजनम् ॥ अर्थात् -- धन या सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने में दुःख होता है, फिर प्राप्त किये हुए धन और पदार्थों की रक्षा करने में दुःख होता है । धन की आय होने पर भी अनेक चिन्ताएँ और भय लग जाने के कारण दुःख होता है, तथा उपार्जित धन या पदार्थों के व्यय- - खर्च हो जाने या नष्ट हो जाने पर दुःख होता है । धिक्कार है ऐसे सांसारिक पदार्थों को, जो कष्ट के भाजन हैं । यथा ह्यमिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि । भक्ष्यते सलिले नकस्तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥ राजत: सलिलादग्नेश्चौरतः . स्वजनादपि । नित्यं धनवतां भीतिर्दृश्यते भुवि सर्वदा || अर्थात् -- जैसे आकाश में पक्षिगण, पृथ्वी पर सिंह आदि हिंस्र प्राणी, और पानी में मगरमच्छ आदि मांस देखते ही उस पर टूट पड़ते हैं और खा जाते हैं, वैसे ही धनवान् को भी लोग सब जगह निगल जाना चाहते हैं । इस भूखण्ड पर धनवानों को शासनकर्त्ता से, जल से, अग्नि से, चोर से, और स्वजनों से नित्य भय बना रहता है । इस प्रकार धन, स्वर्ण, रजत, रत्न आदि सांसारिक पदार्थों का परिग्रह इस लोक में पद-पद पर दुःखदायक है । परिग्रही मनुष्य को सुख से नींद भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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