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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन----द्वितीय उद्देशक
आती। जिन पदार्थों को लेकर मनुष्य अपने मन में सुख की कल्पना करता है, वे ही पदार्थ उसके लिए अत्यन्त दुःखदायी एवं शोक-चिन्ता के आगार बन जाते हैं ।
__इसी प्रकार माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-पुत्र आदि जितने भी स्वजनसम्बन्धी हैं, उनके प्रति ममत्व भी भयंकर दुःखदायक बनता है । मनुष्य अपने स्वजन से आशा लगाए रहता है कि रोग, कष्ट, आफत, निर्धनता के समय ये मेरी सहायता करेंगे, मेरी सेवा करेंगे, मुझे मौत से बचा लेंगे, आफत से उबार लेंगे, मेरे धन-माल की रक्षा करेंगे, परन्तु स्वजनवर्ग भी समय आने पर आँखें फेर लेते हैं, वे तर्ज बदल देते हैं। जब तक धन रहेगा, तब तक स्वजन मीठे-मीठे बोलेंगे, परन्तु जहाँ धन खत्म हो गया, स्वार्थ की पूर्ति की कोई आशा न रही, वहाँ स्वजनवर्ग तुरन्त छोड़कर चले जाएँगे । इसलिए स्वजनवर्ग के प्रति ममत्व–परिग्रह भी इस लोक में दुःखदायक होता है।
इहलोक में ममत्व किये हुए सांसारिक पदार्थ, धन तथा स्वजन आदि का मोह परलोक में भी दुःखकारक होता है । क्योंकि इन पर किये हुए ममत्व से हुए कर्मबन्धन के फलस्वरूप परलोक में नाना प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। उन दुःखों को भोगते समय फिर नवीन कर्मबन्धन करना पड़ता है, पुनः दुःख पाना पड़ता है । इस प्रकार दुःख की परम्परा बढ़ती ही जाती है । उसका अन्त दोर्घकाल तक नहीं आता। अत: शास्त्रकार इस गाथा के चतुर्थ पाद में कहते हैं --'इति विज्ज कोऽगारमावसे ?' इस प्रकार के क्षणभंगुर उभयलोक-दु:खावह परिग्रह के भण्डार गृहवास को दुःखावह समझकर कौन जान-बूझ कर उसमें फंसेगा ? यह गृहवास नहीं, गृहपाश है । कहा भी है
दाराः परिभवकाराः बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः ।
कोऽयं जनस्य मोहो ? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशाः ॥ अर्थात्- दारा (स्त्री) अपमान करने वाली है, बन्धुजन बन्धनरूप हैं, विषय विवरूप हैं, तथापि मनुष्य का यह क्या मोह है कि जो शत्रु तुल्य हैं, उनसे वह मित्रवत् आचरण की आशा रखता है ?
इस बात को समझने वाला साधक समत्व को छोड़कर सांसारिक पदार्थों और स्वजनों के प्रति ममत्व के पाश में क्यों बँधेगा ?'
१. इस गाथा के बदले नागार्जुनीय वाचना में दूसरी गाथा मिलती है
सोऊण तयं उवठियं केइ गिही विग्घेण उठिया। धम्ममि अणुत्तरे मुणी, तं पि जिणिज्ज इमेण पंडिए ।।
अर्थात् -- 'कोई गृहस्थ मुनि को वहाँ आये हुए जानकर यदि विध्न करने के लिए आएँ, तो अनुत्तरधर्म में स्थित मुनि उनको इस रीति से जीत ले।"
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