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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
जनक आरम्भ के कार्यों से सदा दूर रहता हो। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं - 'धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतए ठिए।' आरम्भ का अर्थ सावद्य अनुष्ठान (कार्य) भी है। इस दृष्टि से अर्थ होता है-आरम्भ के अन्त में अर्थात् जो अभाव में स्थित रहता है, वह मुनि है।
जो साधक मुनिधर्म के सिद्धान्तों से अनभिज्ञ है, और आरम्भ-परिग्रह में आसक्त रहता है, धर्माचरण करने में अत्यन्त मन्द रहने वाला है, इष्टपदार्थों अथवा व्यक्तियों के वियोग में झूरता रहता है, रुदन और शोक करता है, इसके सिवाय साधनाकाल में भी जो तथाकथित साधक, 'यह मेरा है, 'मैं इस पदार्थ का मालिक हूँ' इस प्रकार का ममत्व रखता है, वह मृत्युकाल निकट आने पर उन सजीव-निर्जीव पदार्थों से वियोग की सम्भावना को सोच-सोचकर विलाप करता है, शोकमग्न हो जाता है। परन्तु इस प्रकार की हायतोबा के बावजूद भी वह उस ममत्व-स्थापित पदार्थ को प्राप्त नहीं कर पाता।
अथवा 'सोयंति य णं ममाइणो णो लब्भन्ति णियं परिग्गह' इस पंक्ति का यह अर्थ भी सम्भव है, जो मुनि धर्म में पारंगत और आरम्भ से परे है, उसके प्रति ममत्व और आसक्ति से युक्त स्वजन उसके पास आकर शोक, विलाप और रुदन करते हैं, उसे ले जाने के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं, वे उस मुनि को परिग्रह (ममत्ववश होने के कारण) समझने के बावजूद भी वे उसे प्राप्त नहीं कर पाते । अर्थात् वह मुनि धर्म में इतना सुदृढ़ और धर्मसिद्धान्त में पारंगत है तथा समस्त आरम्भ से दूर है कि स्वजनों का उसके प्रति ममत्व और ममत्व के कारण उसे अपने वश में करके ले जाने का उनका मनोरथ किसी भी प्रकार से सफल नहीं होता।
मूल पाठ इहलोग दुहावहं विऊ परलोगे य दुहं दुहावहं । विद्धंसणधम्ममेव तं इति विज्जं कोऽगारमावसे ।।१०॥
संस्कृत छाया
इहलोकदुःखावहं विद्याः, परलोके च दुखं दुःखावहम् । विध्वंसनधर्ममेव तद् इति विद्वान् कोऽगारमावसेत् ? ॥१०॥
अन्वयार्थ (इहलोगदुहावह) सांसारिक पदार्थ और स्वजनवर्ग के प्रति परिग्रह (ममत्व) इस लोक में दुःख देने वाला है, (परलोगे य) और परलोक में भी (दुहं दुहावहं) दुःख देने वाला है। (विऊ) यह जानो । (तं) वह-परिग्रहजन्य पदार्थसमूह
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