________________
सूत्रकृतांग सूत्र यही मुनिपद में स्थित साधक का प्रथम धर्म है, जो शास्त्रकार ने इस गाथा में सूचित किया है।
मूल पाठ धम्मस्स य पारए मुणी आरंभस्स य अंतए ठिए । सोयंति य णं ममाइणो, णो लभंति णियं परिग्गहं ॥६॥
__ संस्कृत छाया धर्मस्य च पारगो मुनिः, आरम्भस्य चान्तके स्थितः । शोचन्ति च ममतावन्तः. नो लभन्ते निजं परिग्रहम् ।।६।।
अन्वयार्थ (धम्मस्स) श्रुत-चारित्ररूप धर्म का (में) (पारगो) पारंगत (य) और (आरंभस्स) आरम्भ के (अन्तए) अन्त में -- परे (ठिए) स्थित पुरुष ही वास्तव में (मुणी) मुनि है । (ममाइणो) जो पदार्थों पर ममता रखते हैं, वे (सोयंति) शोक-- चिन्ता करते हैं, फिर भो (णियं परिग्गह) अपने मनमाने परिग्रहरूप पदार्थ को (णो लब्भंति) प्राप्त नहीं करते ।
भावार्थ जो व्यक्ति श्र त-चारित्ररूप धर्म (धर्मसिद्धान्त) में पारंगत है, और आरम्भ (हिंसाजनक प्रवृत्ति) से दूर रहता है, वही वास्तव में मुनि है। किन्तु पदार्थों पर ममता रखने वाले व्यक्ति उनको पाने की तथा प्राप्त के वियोग की चिन्ता करते रहते हैं, फिर भी वे अपने मनोवाञ्छित पदार्थों (परिग्रह) को प्राप्त नहीं कर पाते।
__ व्याख्या आरम्भ से परे धर्मपारंगत मुनि परिग्रह से दूर
पूर्वगाथा में मुनि को सर्वप्रथम हिंसा से विरतिरूप धर्म का उपदेश दिया गया है, अब इस गाथा में मुनि के दूसरे धर्म-परिग्रह से विरति-का उपदेश दिया गया है । सर्वप्रथम शास्त्रकार मुनि का लक्षण देते हैं । मुनि वह नहीं है, जो मनमाना निरंकुश चलता हो, वेश पहन लिया, किन्तु जिसे श्रुत-चारित्र रूप मुनिधर्म का ज्ञान ही न हो, आरम्भ में पड़ा हो। किन्तु मुनि वही समझा जाएगा--जो श्रुत-चारित्र रूप मुनिधर्म के सिद्धान्त और व्यवहार का पूर्ण ज्ञाता हो, पारगामी हो। जिसका धर्म सम्बन्धी अध्ययन-मनन और आचरण-ज्ञान तलस्पर्शी हो, साथ ही जो हिंसा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org