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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक व्याख्या प्रथम धर्म : प्राणिघात से विरति सावजीवन में प्रथम धर्म, जो प्रकट करना है, वह है प्राणिघात से विरति । जिसके लिए इस गाथा में संकेत किया गया है। प्राणिघात से विरति होने से पूर्व शास्त्रकार प्राणियों का स्वरूप बताते हैं---'बहवे पाणा पुढो सिया ।' यहाँ प्राणों के साथ अभेद आरोप करके प्राणियों को प्राण कहा है। क्योंकि प्राणी दशविध प्राणों को धारण करता है । इस जगत् में अनेक प्राणी हैं। उनमें से कोई त्रस है तो कोई स्थावर है । त्रस प्राणियों में भी कोई द्वीन्द्रिय है तो कोई त्रीन्द्रिय, कोई चतुरिन्द्रिय है तो कोई पञ्चेन्द्रिय । फिर पंचेन्द्रिय में भी कोई संज्ञी है, कोई असंज्ञी है, कोई पर्याप्तक है तो कोई अपर्याप्तक, कोई गर्भज है तो कोई सम्भूच्छिम, कोई मनुष्य है तो कोई देव, कोई तिर्यञ्च है तो कोई नारक । तिर्यञ्चों में भी कोई जलचर है, कोई खेचर, कोई स्थलचर है, कोई उरपरिसर्प है तो कोई भुजपरिसर्प । __स्थावर में सभी प्राणी एकेन्द्रिय होते हैं, उनमें भी कोई पृथ्वीकायिक है तो कोई जलकायिक, कोई तेजस्कायिक है, तो कोई वायुकायिक और कोई वनपस्तिकायिक है । उनमें भी कोई सूक्ष्म है, कोई बादर है। यों ४ गति और ८४ लाख जीवयोनियों के अनन्त-अनन्त प्राणी इस जगत् में निवास करते हैं । पृथक-पृथक आत्मा एवं प्राणों वाले इन सभी प्राणियों को सुख और जीवन समानरूप से प्रिय है, दु:ख और मरण अप्रिय है।। यहाँ तक प्राणियों का स्वरूप और स्वभाव बताने के बाद शास्त्रकार उनके प्रति मुनिधर्म बताते हुए कहते हैं- 'जो मोणपदं उठ्ठिए पत्तेयं समयं समाहिया विरति तत्थ अकासी पंडिए।' आशय यह है कि जो साधनाशील व्यक्ति मुनिधर्मपालन के लिए उद्यत हुआ है, उस सझसद् विवेकशाली पण्डित साधक को उन प्राणियों को समभाव से यानी आत्मौपम्य भाव से देखना चाहिए। अर्थात्-- 'जह मम न पियं दुक्खं एमेव सव्वजीवाण'-जैसे मुझे दुःख (हिंसा आदि का) प्रिय नहीं है, वैसे सभी जीवों को प्रिय नहीं है । मुझे सुख प्रिय है, वैसे सभी प्राणियों को भी प्रिय है। इस प्रकार समत्ववृत्ति से आत्मवत्भाव से सभी प्राणियों को देखनासमझना चाहिए । यहाँ 'समय' शब्द का 'समता' रूप भी होता है और 'स्वमय' रूप भी होता है, जिसका अर्थ-- 'आत्ममय'- अपने तुल्य होता है । हाँ तो, साधक इस प्रकार अपनी आत्मा के तुल्य षटकायिक जीवों को देखकर उन प्राणियों की हिंसा से दूर रहे । न उन्हें मारे-पीटे, सताए, न उन पर बोझ डाले. न उन्हें कूचले, न कैद करे या बन्धन में डाले, न डराए-धमकाए, न उन पर उच्चाटन-मारण का प्रयोग करे और न ही जीवन से रहित करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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