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सूत्रकृतांग सूत्र
तो धर्म में लीनता नहीं होगी । क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म जीवन में आ नहीं सकेंगे । यह तीसरा उपाय बताया है ।
धम्मं पादुकासी कासवं - धर्म में लीनता के ये तीन उपाय बताने के वाद शास्त्रकार का उपदेश है कि इन तीनों उपायों के द्वारा शुद्ध धर्म में लीनता करके अपने जीवन से काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित दशविध श्रमणधर्म को प्रकट करे । साधक के जीवन में जब धर्म रम जाता है, तभी वह अपने जीवन से धर्म को अभिव्यक्त कर सकता है, उस साधक का धर्ममय जीवन ही स्वयं बोलता हुआ होगा । इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने कहा था - 'न धर्मो धार्मिकै faar' धार्मिक बने बिना धर्म का प्रकटीकरण या धर्म प्रचार-प्रसार नहीं हो सकता । इस गाथा में वर्तमान में भूतकाल के अकासी शब्द का प्रयोग छन्दोभंग न हो, इसलिए किया गया है ।
यही इस गाथा का आशय है ।
पूर्वगाथा के अन्तिम चरण में अपने जीवन से धर्म को प्रगट करने की बात कही थी, किन्तु साधक किस धर्म को प्रगट करता है ? इसके लिए अगली गाथा में शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ
बहवे पाणा पुढो सिया, पत्ते यं समयं समीहिया
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जो मोणपदं उवट्ठिए विति तत्थ अकासी पंडिए ॥ ८ ॥
संस्कृत छाया
बहवः प्राणाः पृथक् श्रिताः, प्रत्येकं समतां समीक्ष्य । यो मौनपदमुपस्थितो विरतिं तत्राकार्षीत् पण्डितः ||८||
अन्वयार्थ
( बहवे ) बहुत से (पाणा ) प्राणी ( पुढो) पृथक्-पृथक् (सिया ) इस जगत् में निवास करते हैं, ( पत्त यं ) प्रत्येक प्राणी को ( समयं ) समभाव से ( समीहिया) देखकर (मोणपदं) संथम में - मुनिपद में ( उवट्ठिए) उपस्थित (जो ) जो (पंडिए) पण्डित है वह ( तत्थ ) उन प्राणियों के घात से (विति) विरति ( अकासी) करे ।
भावार्थ
इस जगत् में बहुत-से प्राणी पृथक्-पृथक् निवास करते हैं । उन सब प्राणियों में से प्रत्येक प्राणी को समभाव से देखने वाला मुनिपद में उपस्थित सद्-असद् विवेकी साधक उन प्राणियों के घात से विरत रहे।
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