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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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संस्कृत छाया दूरमनदृश्य मनिरतीतं धर्ममनागतं तथा । स्पष्टः परुषैहिनः अपि हन्यमानः समये रीयते ॥५।।
अन्वयार्थ (मणी) तीनों काल की गतिविधि पर मनन करने या शास्त्रादि द्वारा जानने वाला मुनि, (दूरं) मोक्ष को तथा (तीतं) अतीत--भूत तहा) तथा (अणागय) भविष्यकालीन (धम्म) प्राणियों के धर्म--स्वभाव को (अणुपस्सिया) जान-देखकर (परुसेहि) कठोर वचनों अथवा लाठी आदि के प्रहारों का (पुठे) स्पर्श होने पर अथवा (अविहण्णू) हनन किये जाने पर भी (समयम्मि) अपने सिद्धान्त अथवा संयम पर (रीयइ) डटा रहे या गति करे।
___ भावार्थ त्रिकालदर्शी अथवा त्रिलोक मननशील अहिंसा में दृढ़ साध दर यानी मोक्ष को या दूर-दूर तक दीर्घदृष्टि से भूत और भविष्य का जीवों के स्वभाव का अवलोकन करके कठोर वचन या लाठी आदि के द्वारा स्पर्श किये जाते हुए प्रहार को अथवा जान से मार डालने तक को भी समभाव से सहे, अपने समत्व सिद्धान्त पर डटा रहे, संयम-मार्ग में स्थिर रहे।
व्याख्या
समभावपूर्वक संयम में स्थिर रहने का उपाय जो मुनि समभाव एवं संयम में स्थित रहना चाहता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर होनी चाहिए। अगर उसकी प्रज्ञा जरा-जरा से उपसर्ग या परीषह को देखकर विचलित हो जाएगी, सुख-दु:ख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी, आदि द्वन्द्वों का वास्ता पड़ते ही डगमगा जाएगी, कठोर वचन या प्रशंसात्मक वचन, प्रहार या उपहार के प्रसंगों में हर्ष-शोक या राग-द्वेष की ओर झुककर अस्थिर हो जायगी, तो वह समभाव व संयम में मजबूती से अपने कदम स्थिर नहीं रख सकेगा, इन्द्रियों और मन पर संयम नहीं रख सकेगा, इस प्रकार कर्मक्षय निर्जरा) के अवसरों को खो कर वह उन्हें कर्मबन्धन (आस्रव और बन्ध) में बदल देगा। कितनी बड़ी हानि है यह मोक्षमार्गी साधक के लिए ? इसीलिए शास्त्रकार इस गाथा में समभाव में स्थिर रहने का उपाय बताते हुए उपदेश देते हैं---'दूरं अणुपस्सिया मुणी.... .." तहा।' यहाँ 'दूरं' शब्द के दो अर्थ सम्भव हैं-एक तो मोक्ष, क्योंकि मोक्ष दूरवर्ती है, इसलिए इसे 'दूर' कहा गया है, इसी प्रकार दूसरा अर्थ है-सुदूर अतीत और सूदर भविष्य क्योंकि अतीतकाल और भविष्यकाल भी बहुत दूर हैं। यहाँ 'मुणी'
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