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सूत्रकृतांग सूत्र शब्द भी बहुत गम्भीर अर्थ को सूचित करता है । 'मन्ता शास्त्रार्थतत्त्वावगन्ता मुनिः' 'मन्यते यो जगत् सर्व', 'मनुते यो उभे लोके' ये तीन व्युत्पत्तियाँ मुनि की होती हैं । मुनि का अर्थ है---शास्त्र में उल्लिखित तत्त्वों पर मनन-चिन्तन करने वाला, जो जगत् की समस्त गतिविधियों पर मनन करता है, जानता है, अथवा दोनों लोकों (इहलोक और परलोक) को जानता है, अथवा जो शास्त्ररूपी नेत्रों द्वारा तीनों काल की बातें जानता है। दूरदर्शी बनकर अतीतकाल में परीषहों और उपसर्गों के समय सुदृढ़ और सहिष्णु और क्षमाशील बनकर समभाव में स्थिर रहने वाले मुनि पुगवों (अर्जुनमुनि, गजसुकुमार मुनि आदि) के जीवन पर दृष्टिपात करके तथा भविष्य में मुझे भी ऐसे कठोर प्रसंगों पर क्षमाभाव रखने का प्रयत्न करना चाहिए तथा वर्तमान में अपनी दुर्बलताओं को झाड़कर समभाव में स्थिर रहना है, ममुक्ष बनना है। इस प्रकार त्रिकालदर्शी मुनि जगत् के प्राणियों के भूतकालीन एवं भविष्यकालीन स्वभाव का मन ही मन विश्लेषण करे । अर्थात् 'प्राणी ऊँची-नीची गतियों में क्यों जाते हैं ? कर्मबन्धनों के कारण ही कर्मबन्धन क्यों होते हैं ? उन्हें ये जीव क्यों नहीं रोक पाते ? मैं तो मुनि हूँ, मैंने शास्त्रों से समस्त तत्त्वों को छान डाला है, मुझे कर्मबन्धन और उनके कारणों से दूर रहना चाहिए।' ये और इस प्रकार के दीर्घदर्शी विचारों के प्रकाश में मुनि कठोर परीषहों, प्रहारों या उपसर्गों के स्पर्श के अथवा मारे-पीटे जाने के समय अपने समय (ममत्व या सामायिक) में अथवा सिद्धान्त पर स्थिर रहे, संयम-पथ पर ही चले । यहाँ 'समयंमि रीयइ' के बदले 'समयाऽहियासए' पाठान्तर भी मिलता है, जो अधिक उपयुक्त जचता है । उसका अर्थ है---समभावपूर्वक पूर्वोक्त आपत्तियों को सहन करे ।
यही समभाव में स्थिर रहने का ठोस उपाय शास्त्रकार ने भगवान ऋषभदेव के शब्दों में बताया है। अगली गाथा में पुनः इसी से सम्बन्धित उपदेश है----
मूल पाठ पण्णासमत्त सया जए समताधम्ममुदाहरे मुणी । सुहुमे उ सया अलूसए, णो कुज्झे णो माणी माहणे ।।६।।
संस्कृत छाया प्रज्ञासमाप्तः सदा जयेत् समताधर्ममुदाहरेन्मुनिः । सूक्ष्म तु सदाऽलूषकः नो ध्येन्नो मानी माहनः ।।६।।
___ अन्वयार्थ (पण्णासमत्त) प्रज्ञा में परिपूर्ण अथवा स्थितप्रज्ञ (मुणी) मुनि (सया) सदा (जए) कषायों को जीते । और (समयाधम्म उदाहरे) समतारूप धर्म का उपदेश दे,
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