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________________ ३२८ सूत्रकृतांग सूत्र (मुक्ति गमन के योग्य) सद्-असद्-विवेककुशल, शुभ अध्यवसाय से युक्त होकर मृत्युपर्यन्त संयम में तत्पर रहे । व्याख्या समता का आराधक क्या करे ? पूर्वगाथाओं में मद और निन्दा का त्याग करने का उपदेश दिया गया है, परन्तु वह उपदेश तभी टिक सकता है, जब जीवन में समभाव हो। इसलिए इस गाथा में समभाव का उपदेश दिया है। सामायिक, छेदोपस्थानीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय एवं यथाख्यातचारित्र ये पाँच प्रकार के संयम हैं। इन पाँचों में से किसी एक संयमस्थान में स्थित होकर द्रव्य और भाव दोनों से शुद्ध (यानी व्यवहार एवं निश्चय दोनों से शुद्ध) श्रमण आजीवन समभाव में गति-प्रगति करे। जब वह समभाव में सुदृढ़ रहेगा तो स्वाभाविक रूप से ही मद और निन्दा दोनों ही पाप छूट जाएँगे। जे आवकहा-~~-समभाव का पालन कितने समय तक करे, इसके समाधानार्थ यहाँ 'यावत्कथा' (जे आवकहा) शब्द का प्रयोग किया गया है। यावत्कथा का मतलब जीवनपर्यन्त है, अर्थात् जहाँ तक देवदत्त यज्ञदत्त इस प्रकार के नाम की कथा चर्चा लोगों में है । जब शरीर या जीवन छूट जाएगा, तब अमुक नाम की चर्चा (कथा) भी समाप्त हो जाएगी । अतः यावज्जीवन समभाव में स्थित रहना है। समभाव का आचरण किस प्रकार ठीक हो सकता है ? इसके लिए यहाँ साधु के विशेषण प्रयुक्त किए गये हैं--(१) समाहित होकर (२) भव्य बनकर (३) पंडित--सद्-असद् विवेकशील होकर । प्रथम तो जीवनपर्यन्त वह समाधिभाव में रहे। समाधिगावयानी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्र में सम्यक् प्रकार से स्थापित करे । तत्पश्चात मोक्षगमन के योग्य दृढ़ स्थिति मन की रखे तथा सत्-असत् हेयउपादेय, हिताहित का सम्यक् रूप से विवेक हो। ये तीनों गुण शुभ अध्यवसायशील साधु में मृत्युपर्यन्त रहें, तभी वह समभाव में लीन रह सकता है । 'दविए' के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं---रागढ षरहित और मोक्षगमन के योग्य---भव्य । यही इस गाथा का निष्कर्ष है। . अब आगामी गाथा में साधु पर उपसर्ग आ जाने पर वह क्या करे ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं मूल पाठ दूरं अणुपस्सिया मुणी, तीतं धम्ममणागयं तहा । पुठे परुसेहि माहणे, अवि हण्णू समयंमि रीयइ ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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