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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
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हीनजातीय मुनियों का सम्मान एवं विनय करने से कतराए नहीं, इसी प्रकार अपने आपको हीन या तुच्छ मानकर मन ही मन कुढ़ता न रहे, शर्मिन्दा न हो, क्योंकि मुनिपद प्राप्त कर लेने के बाद भूतपूर्व सभी गोत्र, जाति, कुल आदि खत्म हो जाते हैं । मुनिपद विश्ववन्द्य पद है । इन्द्र भी मुनि के चरणों में वन्दन करता है । मानलो, भूतपूर्व हीनजातीय मुनि की कोई निन्दा, आलोचना या तिरस्कार करता है तो भी उसे अपने मन में कुढ़ना न चाहिए, और न ही लज्जित होना चाहिए । उसे यही सोचना चाहिए कि दूसरा कोई कुछ भी कहे, मैं मानव जीवन के सर्वोच्च पद पर हूँ, मैं हीन, नीच या तुच्छ नहीं हूँ । परन्तु अपना यह उत्कर्ष दूसरों के सामने प्रकट करने या निन्दा या अपमान करने वालों से चिढ़कर उनको नीचा दिखाने, वदला लेने या अभिमान प्रदर्शित करने की जरूरत नहीं है । ऐसा करने से तो कर्मबन्ध अधिक होगा । इसीलिए शास्त्रकार समभाव में विचरण करने का निर्देश करते हैं । निष्कर्ष यह है कि साधु को ऐसे समय में न मान करना चाहिए और न अपमान करना चाहिए, सम रहना चाहिए । यही शास्त्रकार का आशय है ।
समभाव से युक्त साधक क्या करे ? इसके सम्बन्ध में अगली गाथा में कहते हैं
भूल पाठ
समे अन्नयरंमि संजमे, संसद्ध समणे परिव्वए ।
जे आवकहास माहिए दविए कालमकासी पंडिए || ४ ||
संस्कृत छाया
समोऽन्यतरस्मिन् संयमे संशुद्धः श्रमणः परिव्रजेत् । यावत्कथा समाहितो द्रव्यः कालमकार्षीत् पण्डितः || ४ ||
अन्वयार्थ
( संसुद्ध ) सम्यक्प्रकार से शुद्ध (समणे ) तपस्वी साधु ( जे आवकहा ) जीवनपर्यन्त ( अन्नयमि) किसी भी ( संजमे) संयमस्थान में स्थित होकर ( समे) समभाव के साथ ( परिव्वए) प्रव्रज्या का पालन करे, ( दविए) वह द्रव्यभूत (पंडिए) सद्-असद् के विवेकवाला पुरुष ( समाहिए ) शुभ अध्यवसाय रखता हुआ ( कालकासी) मरणपर्यन्त संयम का पालन करे ।
भावार्थ
सम्यक् प्रकार शुद्ध तपस्त्री जीवनपर्यन्त किसी भी एक संयमसाधु स्थान में स्थित होकर समभावपूर्वक प्रव्रज्या का पालन करे । वह भव्य
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