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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - द्वितीय उद्देशक ३२७ हीनजातीय मुनियों का सम्मान एवं विनय करने से कतराए नहीं, इसी प्रकार अपने आपको हीन या तुच्छ मानकर मन ही मन कुढ़ता न रहे, शर्मिन्दा न हो, क्योंकि मुनिपद प्राप्त कर लेने के बाद भूतपूर्व सभी गोत्र, जाति, कुल आदि खत्म हो जाते हैं । मुनिपद विश्ववन्द्य पद है । इन्द्र भी मुनि के चरणों में वन्दन करता है । मानलो, भूतपूर्व हीनजातीय मुनि की कोई निन्दा, आलोचना या तिरस्कार करता है तो भी उसे अपने मन में कुढ़ना न चाहिए, और न ही लज्जित होना चाहिए । उसे यही सोचना चाहिए कि दूसरा कोई कुछ भी कहे, मैं मानव जीवन के सर्वोच्च पद पर हूँ, मैं हीन, नीच या तुच्छ नहीं हूँ । परन्तु अपना यह उत्कर्ष दूसरों के सामने प्रकट करने या निन्दा या अपमान करने वालों से चिढ़कर उनको नीचा दिखाने, वदला लेने या अभिमान प्रदर्शित करने की जरूरत नहीं है । ऐसा करने से तो कर्मबन्ध अधिक होगा । इसीलिए शास्त्रकार समभाव में विचरण करने का निर्देश करते हैं । निष्कर्ष यह है कि साधु को ऐसे समय में न मान करना चाहिए और न अपमान करना चाहिए, सम रहना चाहिए । यही शास्त्रकार का आशय है । समभाव से युक्त साधक क्या करे ? इसके सम्बन्ध में अगली गाथा में कहते हैं भूल पाठ समे अन्नयरंमि संजमे, संसद्ध समणे परिव्वए । जे आवकहास माहिए दविए कालमकासी पंडिए || ४ || संस्कृत छाया समोऽन्यतरस्मिन् संयमे संशुद्धः श्रमणः परिव्रजेत् । यावत्कथा समाहितो द्रव्यः कालमकार्षीत् पण्डितः || ४ || अन्वयार्थ ( संसुद्ध ) सम्यक्प्रकार से शुद्ध (समणे ) तपस्वी साधु ( जे आवकहा ) जीवनपर्यन्त ( अन्नयमि) किसी भी ( संजमे) संयमस्थान में स्थित होकर ( समे) समभाव के साथ ( परिव्वए) प्रव्रज्या का पालन करे, ( दविए) वह द्रव्यभूत (पंडिए) सद्-असद् के विवेकवाला पुरुष ( समाहिए ) शुभ अध्यवसाय रखता हुआ ( कालकासी) मरणपर्यन्त संयम का पालन करे । भावार्थ सम्यक् प्रकार शुद्ध तपस्त्री जीवनपर्यन्त किसी भी एक संयमसाधु स्थान में स्थित होकर समभावपूर्वक प्रव्रज्या का पालन करे । वह भव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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