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सूत्रकृतांग सूत्र भावार्थ जिस पर कोई भी अधिनायक नहीं था, अर्थात् जो एक दिन स्वयंप्रभू चक्रवर्ती आदि था, अथवा जो एक दिन दासों का भी दास था, किन्तु अगर उसने मुनिपद ग्रहण कर लिया और वह दीक्षित होकर संयम-मार्ग में उद्यत है तो उसे लज्जित-हीनभावना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए, अपितु समभाव में विचरण करना चाहिए।
अथवा इस गाथा का यह अर्थ भी सम्भव है----जो एक दिन अधिनायक चक्रवर्ती आदि था, या दासों का भी दास था, किन्तु यदि वह वर्तमान में मुनिपद में स्थित है तो दूसरे मुनि को उन दोनों को समानभाव से वन्दन करने से लज्जित नहीं होना चाहिए। उसे सदा समत्व की पगडंडी पर चलना चाहिए।
व्याख्या उत्कर्ष और अपकर्ष में सम रहे
जैसे उत्कर्ष के कारण मनुष्य में अभिमान जागृत होता है, वैसे ही अपकर्ष के कारण उसमें हीनभावना, अपने आप को नीचा-तुच्छ मानने की वृत्ति और तज्जनित लज्जा उत्पन्न होती है। समत्व-साधक के लिए ये दोनों मनोवृत्तियाँ घातक हैं। साधु बनने से पहले कोई अगर अधिनायक या स्वयम्प्रभु चक्रवर्ती आदि था, और दीक्षित होने के बाद अपने यहाँ जो राज्य कर्मचारी का नौकर था, उसे पूर्वदीक्षित देख कर उसे दन्दन करने में अपकर्ष या हीनभावना महसूस करता है, लज्जा का अनुभव करता है तो यह ठीक नहीं। इसी प्रकार कोई व्यक्ति दीक्षित होने से पूर्व किसी के नौकर के यहाँ नौकर था, लेकिन अब अपने समकक्ष उस पूर्वदीक्षित नौकर (जो मुनिपद पर है) को वन्दना करने में कतराता है, हीनता का अनुभव करता है, अथवा कोई चक्रवर्ती आदि अधिनायक था, किन्तु अब साधु बन जाने के बाद अपने से पूर्वदीक्षित साधुओं को जाति आदि के मद के कारण उनका सम्मान या विनय करने में लज्जा महसूस करता है या दासां का दास था, किन्तु मुनि बन जाने पर भी पूर्वकालिक हीनता की मनोवृत्ति लिए बैठा रहता है । 'मैं तो तुच्छ हूँ, नीच जातीय हूँ, हीन हूँ' ऐसा सोचता रहता है, यह भी उचित नहीं। शास्त्रकार कहते हैं- 'जे मोणपदं उवट्ठिए, णो लज्जे, समयं सया चरे।' जो मुनिपद पाकर संयम पालन में उद्यत है, वह अपने आपको न उच्च माने और न ही नीच माने । स्वयं को उच्च या उत्कृष्ट मानकर वह अपने से पूर्वदीक्षित भूतपूर्व १ . आचारांग सूत्र में साधु के लिए बताया है --- 'नो होणे नो अरित्त' (वह न - हीन है, न अतिरिक्त-उत्कृष्ट है )।
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