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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-द्वितीय उद्देशक और इन्हीं पापकर्मों के बोझ से भारी बनकर वह साधक फिर मोक्ष की ओर गतिप्रगति करने के बजाय दीर्घकाल तक संसार की ओर ही गति करता है, इसलिए परपरिभव एवं परनिन्दा को अनन्तकाल जन्म-मरणरूप चक्र में भ्रमण कराने वाली तथा अनेक पापों की जननी बताया है। पाप मनुष्य को अपने स्थान से अधम स्थान में गिरा देता है। परनिन्दा भी अनेक पापों की कारण है। यहाँ ‘अदु' शब्द अथवा और 'उ' शब्द 'ही' अर्थ में हैं। अर्थात् परनिन्दा अवश्य ही पापों की कारण है। इस सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में भी कहा है .---'परपरिवादात् खरो भवति, श्वा वै भवति निन्दकः ।' अर्थात् 'दूसरों का तिरस्कार करने से मनुष्य गधा बनता है और निन्दा करने वाला कुत्ता बनता है।' वृत्तिकार बताते हैं कि परनिन्दारूप पाप के फलस्वरूप परभव में सूअर की योनि में जाम मिलता है, परभव में पुरोहित कुत्ते की योनि में जन्म लेता है। अतः मुनि चाहे कितना ही बड़ा शास्त्रज्ञ हो, आचारवान हो, क्रियाकाण्डी हो, विशिष्ट कुलोत्पन्न हो या तपस्वी आदि हो, फिर भी उसे दूसरे किसी भी व्यक्ति का अपमान, तिरस्कार नहीं करना चाहिए, और न ही किसी की निन्दा, चुगली, ईर्ष्या, असूया आदि में पड़ना चाहिए। साधक को दूसरे की पंचायत में पड़ने से हानि ही है, लाभ कुछ भी नहीं है। यही इस गाथा का आशय है। जैसे मद (उत्कर्ष) के त्याग का उपदेश दिया है, वैसे अपकर्ष (हीनभावना) का भी त्याग करे, इस बात को आगामी गाथा में व्यक्त करते हैं... मूल पाठ जे यावि अणायगे सिया, जे विय पेसगपेसए सिया। जे मोणपयं उवठिए, णो लज्जे समयं सया चरे ॥३॥ संस्कृत छाया यश्चाऽप्यनायकः स्याद, योऽपि च प्रेष्यप्रेष्यः स्यात् । यो मौनपदमुपस्थितो, नो लज्जेत समतां सदा चरेत् ॥३॥ . अन्वयार्थ (जे यावि) जो कोई (अणायगे) नायक से रहित है -अर्थात् जिस पर कोई नेता या नायक नहीं है, स्वयं सर्वेसर्वा अधिनायक है, या चक्रवर्ती आदि है तथा (जे विय) जो (पेसगपेसए) दास का भी दास है, किन्तु अब यदि (जे) वह (मोणपयं) मुनिपद -- संयम मार्ग में (उठ्ठिए) दीक्षित है, या उपस्थित है तो उसे (णो लज्जे) किसी प्रकार से लज्जित नहीं होना चाहिए, किन्तु (सया) उसे सदा (समय) समतासमभाव का आचरण करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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