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________________ चलने का आमंत्रण, घर चलने का दूसरी तरह से अनुरोध, द्रव्य का लोभ देकर गृहवास का अनुरोध, प्रव्रज्या छोड़कर घर की ओर दौड़, वन्य वृक्ष को लता और साधक को स्वजन बाँध लेते हैं, गृहस्थ में फँस जाने के बाद, गृहस्थ में फंस जाने के बाद साधक की स्थिति, समुद्रवत् दुस्तर संग में पड़ा हुआ साधक, संगों से बचो, असंयमी जीवन में मत पड़ो, ज्ञानी साधक संग के चक्करों से दूर, राजाओं आदि द्वारा भोगों का आमंत्रण मिलने पर, किन विषयोपभोगों का प्रलोभन दिया जाता है, अन्य भोग्य सामग्री का आमंत्रण, साधक को गृहवास में रहने का आश्वासन, साधक को गृहवास में फँसाने का दुश्चक्र, संयम से विचलित साधकों की दशा, उपसर्ग उपस्थित होने पर विषाद पाने वाले, उपसर्ग-पराजित साधकों की दशा । तृतीय उद्देशक : विषादयुक्त वचनोपसर्गाधिकार ४४४-४६६ संग्राम में कायर पहले छिपने के स्थान ढूँढ़ता है, कायरता का भीरतापूर्ण चिन्तन, मन्दपराक्रमी साधक की भावी कल्पना, अल्प सत्त्व साधकों का ऊटपटाँग चिन्तन, संयम पालन के विषय में संशयशील साधक, वीर पीछे नहीं, आगे ही देखते हैं, संयम में सुदृढ़ साधक की मनःस्थिति, आक्षेपात्मक वचनरूप उपसर्ग, गृहस्थों का-सा व्यवहार है इन साधुओं का !, सुविहित साधुओं पर प्रत्यक्ष आक्षेप, मोक्ष विशारद साधुओं द्वारा अन्यतीथिकों को उत्तर, अन्यतीथियों के आक्षेप का प्रत्याक्षेप, आक्षेपकर्ताओं को युक्तिसंगत उत्तर, प्रेम से सच्ची और साफ-साफ बातें कहे, बांस के अग्रभाग की तरह युक्तिरहित पोचा कथन, सर्वज्ञ प्रदत्त धर्म-देशना का विपरीत अर्थ, स्वपक्ष सिद्धि में परास्त अन्यतीर्थी पुन: उसी धृष्टता पर, विवाद में हार जाने पर अन्यतीथियों द्वारा आक्रोश का आश्रय, दूसरों के साथ विवाद के समय मुनि का धर्म, रुग्ण साधु की सेवा : प्रसन्नचित्त मुनि का धर्म, उपसर्गों को सहते हुए मोक्ष पर्यन्त संयम पालन करे। चतुर्थ उद्देशक : उपसर्ग-स्थैर्य-अधिकार ४७०-५०१ शीतोदकसेवन से मोक्ष प्राप्ति : एक भ्रान्ति, अपरिपक्व साधु : भ्रान्ति-उत्पादकों के चक्कर में, सुख से सुख प्राप्ति की मान्यता आर्यमार्ग के विरुद्ध है, भ्रान्त मान्यता के शिकार लोगों को उपदेश, मिथ्या मान्यता के चक्कर में पंचास्रवसेवन, स्त्रीसेवन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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