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( ३५ ) कैसी ?, आरम्भासक्त साधकों के कुकृत्यों का दुष्परिणाम, असंस्कृत जीवन होने पर भी पाप करने की धृष्टता, अन्धतुल्य नास्तिकों के मन्तव्य का खण्डन, सब प्राणियों को आत्मवत् समझे, व्रतधारी गृहस्थ भी सुगति प्राप्त करता है, भगवदनुशासन और भिक्षु का कर्तव्य, साधु की मोक्षयात्रा के पाथेय, धन आदि पदार्थ शरणभूत नहीं, दुःखभोग तथा परलोक गमनागमन अकेले का ही, जीव का स्वकर्मसूत्रग्रथित संसार-भ्रमण, मोक्षसाधना एवं बोधप्राप्ति का दुर्लभ अवसर मत खोओ, मोक्षसाधक गुणों के सम्बन्ध में सभी तीर्थंकर एकमत, त्रैकालिक मुक्त साधकों का मोक्षप्राप्ति में एकमत, यह उपदेश किसने, कहाँ और किससे कहा ?
तृतीय अध्ययन : उपसर्गपरिज्ञा : ४००-५०१ इस अध्ययन का संक्षिप्त परिचय, उपसर्ग : स्वरूप, अर्थ, प्रकार और
विश्लेषण ।
प्रथम उद्देशक : प्रतिकूल उपसर्गाधिकार
४०३-४२१ कायर तभी तक अपने को शूरवीर मानता है.', वीराभिमानी युद्ध के मोर्चे पर तो चला जाता है, पर"", नव-दीक्षित साधु भी तभी तक अपने को वीर मानता है, भयंकर शीत स्पर्श से मन्द-साधक को विषाद, ग्रीष्मताप से पीड़ित साधक की मनोदशा, याचना का परीषह अत्यन्त दुसह, ये आक्रोश परीषह एवं उपसर्ग सहने में कायर साधक, क्रूर प्राणियों के द्वारा उपसर्ग आने पर, साधु विद्वेषी जनों द्वारा वाक्प्रहार के समय, अनार्यों द्वारा प्रयुक्त ये कठोर वाक्य !, साधु विद्रोही जनों के कुकृत्यों के फल, दंशमशक आदि परीषहों के समय कायर साधक का चिन्तन, कितना दुष्कर है केशलोच और ब्रह्मचर्य पालन !, साधु को उपसर्ग (पीड़ा) देने वाले, चोर या खुफिया समझकर साधु को बांध देते हैं, शस्त्रास्त्रों से प्रहार : ज्ञातिजनों की याद, संयम क्षेत्र छोड़कर नामर्द वापस घर को लौट
जाते हैं। द्वितीय उद्देशक : अनुकल-उपसर्गाधिकार
४२२-४४३ अनुकूल उपसर्ग : बड़े सूक्ष्म, अत्यन्त दुस्तर !, पारिवारिक जनों का अपने भरण-पोषण के लिए अनुरोध, स्वजनों के द्वारा मोह में फंसाने का एक और प्रकार, लौकिक राग में फंसाने का स्वजनों का तरीका, साधक को फुसलाने का तरीका, कर्मचोर साधक को घर
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