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द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक
अभिमानादि-त्याग का उपदेश द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक को समाप्त करके अब द्वितीय उद्देशक प्रारम्भ किया जा रहा है। प्रथम उद्दशक में आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को परीषह, उपसर्ग आदि पर विजय प्राप्त करने का जो बोध दिया था, उसका वर्णन है, अब दूसरे उद्देशक में उसी सन्दर्भ में जाति आदि के मद एवं मान के त्याग का उपदेश है।
द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा में कहा गया था कि वैदारकपथ पर चलने वाला संयमी पुरुष धन, स्वजन एवं आरम्भ का त्याग करे अतः उसी सन्दर्भ में अब इस द्वितीय उद्दे शक में साधना के आन्तरिक शत्र अभिमान के त्याग का निरूपण किया गया है। अतः शास्त्रकार इस सम्बन्ध में द्वितीय उद्देशक की प्रथम गाथा का आरम्भ करते हैं
पूल पाठ तयसं व जहाइ से रयं, इति संखाय मुणी ण मज्जई । गोयन्नतरेण माहणे, अह सेयकरी अन्नेसी इंखिणी ।।१।।
संस्कृत छाया त्वचमिव जहाति स रजः, इति संख्याय मुनिन माद्यति । गोत्रान्यतरेण माहनोऽथाश्रेयस्कर्यन्येषामीक्षिणी ॥१॥
___ अन्वयार्थ (तयसं व) जैसे साँप अपनी त्वचा (केंचुली) को (जहाइ) छोड़ देता है, वैसे ही (से) वह साधु भी (रयं) आठ प्रकार के कर्मरूपी रज-मल को छोड़ देता है । (इति संखाय) यह जानकर (माहणे मुणी) अहिंसाप्रधान (माहन) मुनि (गोयन्नतरेण) गोत्र तथा दूसरे मद के कारणों से (ण मज्जई) मद नहीं करता है । (अन्नेसी) दूसरों की (इखिणी) निन्दा (असेयकरी) कल्याण का नाश करने वाली है । अतः साधु दूसरे किसी की निन्दा नहीं करता।
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