________________
३२०
सूत्रकृतांग सूत्र
वीरतापूर्वक कर्मविदारण करने में समर्थ (वैदारक) मार्ग पर चल पड़े हो । अब तुम्हें सर्वप्रथम अपने पास मन, वचन, काया, ये तीन जो उत्तम साधन हैं-संयमपालन करने के, उन पर नियंत्रण रखना है। अर्थात् मन को सावद्य-पापयुक्त विचारों से रोकना है, और निरवद्य, मोक्ष एवं संयम के विचारों में, आत्मभावों में लगाना है, वचन को पापजनक वचनों को प्रगट करने से रोकना है और धर्मयुक्त संवरनिर्जराजनक वचनों को अभिव्यक्त करने में लगाना है, अथवा मौन रखना है; एवं काया को भी पापकारी सावध आरम्भ-समारम्भ आदि कार्यों या प्रवृत्तियों में जाने से रोकना है, तथा धर्मानुष्ठान में लगाना है। इसके साथ ही धनसम्पत्ति, स्वजनवर्ग एवं आरम्भज सावध कार्यों के प्रति साधक का भूतपूर्व जीवन में जो लगाव संसर्ग या मोह रहा है, उसे अब सर्वथा छोड़ देना है, उसे बिलकुल भूल जाना है और मनोविजयी, जितेन्द्रिय एवं जागरूक संयमी रहकर इस वैदारकमार्ग पर विचरण करना है ।" यही इस गाथा का आशय है।
___ 'त्ति बेमि' (इति ब्रवीमि) का अर्थ पूर्ववत् है। श्री गणधर सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं- “ऐसा मैं कहता हूँ।"
इस प्रकार वैतालीय नामक द्वितीय अध्ययन का प्रथम उद्देशक अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ।
॥ द्वितीय अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org