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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-प्रथम उद्देशक ३१६ मूल पाठ वेयालियमग्गमागओ मणवयसा कायेण संवुडो । चिच्चा वित्त च णायओ आरंभं च सुसंवुडे चरे ॥२२॥ -त्ति बेमि संस्कृत छाया बैदारक मागंमागतः मनसा बचसा कायेन संवृतः । त्यक्त्वा वित्त च ज्ञातिश्च आरम्भञ्च सुसंवृतश्चरेत् ।।२२।। -इति ब्रवीमि अन्वयार्थ (यालियमग्ग) कमों को विदारण करने में समर्थ मार्ग में (आगओ) आया हुआ साधक (मणवयसाकायेण संवुडो) मन, बचन एवं काधा से संवृत गुप्त होकर वित्त मान-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, (णापओ) कुटुम्ब-कबीले या ज्ञातिवर्ग ( च) और आरम्भ सावध अनुष्ठान को (चिच्चा) छोड़कर सुसंवुडे चरे) उत्तम इन्द्रियसंयमी होकर विचरण करना चाहिए। भावार्थ "हे साधको ! कर्मबन्धनों को विदारण- नष्ट करने में समर्थ वीरों के मार्ग में आ गये हो, इसलिए अब मन, वचन और काया तीनों से गुप्त होकर यानी तीनों को संवृत करके तथा धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, कुटुम्बपाबीला या जाति के स्वजनों को एवं पापकर्मजनक आरम्भकार्यों को तथा उनके प्रति आसक्ति को सर्वथा छोड़कर इन्द्रियों से संवत–संयमी होकर विचरण करो। ऐसा मैं कहता हूँ। व्याख्या बैदारक पथ पर आने वालों से ! पूर्वोक्त गाथाओं में कर्मबन्धन के कारणों तथा अनुकल-प्रतिकूल उपसर्गों तथा परीषहों के विभिन्न प्रसंगों में सावधान रहने का जो उपदेश भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के बहाने समस्त साधकों को दिया था, उसी उपदेश का सार इस गाथा में दोहराकर इस उद्देशक का उपसंहार करते हैं। इस उद्देशक का नाम 'बेयालिय' है, जिसका एक रूप होता है, वैदारक । वैदारक मार्ग उसे कहते हैं, जो कर्मशत्रुओं को विदारण करने में समर्थ मार्ग हो। भगवान् ऋषभदेव के शब्दों में उपदेश का सार यह है कि “साधको ! अब तुम कर्मबन्धन का मार्ग छोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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