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________________ ३१६ व्याख्या कायर असंयमियों का पतन साधुजीवन में आने वाले उपसर्गों और परीषहों से घबराकर असंयम की ओर झुक जाने वाले कायर साधक सुख-सुविधाएँ ढूंढ़ते रहते हैं, जब माता-पिता आदि स्वजनवर्ग उसके समक्ष जरा-सी भी गृहवास में चलने और विषयभोगों के सेवन करने की प्रार्थना करते हैं, तब वे आगे-पीछे का विचार किये बिना फौरन लुढ़क जाते हैं, अपने जीवन में अपनाये हुए सर्वविरति संयम से पतित हो जाते हैं और माता-पिता आदि द्वारा किये गये उक्त अनुकूल उपसर्ग के सामने घुटने टेक देते हैं । उसके बाद वे अल्पपराक्रमी, साधुता में अपरिपक्व, असंयमरुचि व्यक्ति गृहवास में जाकर अपने माता-पिता, स्त्री- पुत्र आदि में अत्यन्त मोहित एवं आसक्त हो जाते हैं । अथवा वे फिर धर्मानुष्ठान करने में मूढ़ ( विवेकविकल) हो जाते हैं । इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं - " अन्ने अन्तहि मुच्छिया मोहं जंति नरा असंबुडा ।" सूत्रकृतांग सूत्र अन्य शब्द का बहुवचनान्तरूप 'अन्ने' शब्द संयमी जीवन से विहीन होने वाले aresों के लिए प्रयुक्त किया गया है। साधक के लिए सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र के अतिरिक्त संसार के सभी पदार्थ - यहाँ तक कि मोह-माया, लोभ, काम, आदि भावात्मक एवं माता-पिता आदि स्वजन तथा शरीर, धन, धाम आदि द्रव्यात्मक सभी पदार्थ - अन्य हैं । उन अन्य पदार्थों - यानी संयमी जीवन से असम्बद्ध पदार्थों को जो अपने मान लेता है वह भी अन्य है । वास्तव में साधक के लिए सम्यग्दर्शन आदि आत्मगुण ही अपने हैं, उनसे भिन्न सभी दुर्गुण या सभी पदार्थ अन्य हैं । अन्यों को अपने मानने वाले भूतपूर्व संयमी - वर्तमान में संयमी जीवन से च्युत लोग अन्यों यानी पूर्वोक्त प्रकार के असंयमी गृहस्थों में मूच्छित - आसक्त होकर मोहवश विवेकभ्रष्ट हो जाते हैं । विसमं विसमेहिं गाहिया - यहाँ विषम शब्द असंयम का वाचक है, क्योंकि साधक के लिए संयम सम है, असंयम विषम है। उस विषम -- असंयम को अपनाने वाले भी 'विषम' कहलाते हैं । अतः विषमों - असंयमीजनों द्वारा विषम -- असंयम ग्रहण कराये हुए वे संयमभ्रष्ट पुरुष अठारह ही प्रकार के पापकर्म करने में धृष्ट हो जाते हैं । यानी वे फिर बेलगाम (निरंकुश ) होकर बेखटके पापकर्म करते रहते हैं । Jain Education International शास्त्रकार का आशय सर्वविरति-संयममार्ग के पथिकों को अनुकूल उपसर्ग आने पर फिसल जाने वाले संयमभ्रष्टों की वास्तविक दशा बताकर सावधान करना है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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