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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन ---प्रथम उद्देशक
३१५ पोषण करना तुम्हारा धर्म है। अपने दुःखी परिवार के पालन से पुण्यलाभ होता है। इसी दृष्टि से किसी ने कहा है--
या गतिः क्लेशदग्धानां गहेषु गहमे बिनाम् ।
विभ्रतां पुत्रदारास्तु तां गतिं व्रज, पुत्रक ! "हे पुत्र ! स्त्री, पुत्र आदि का पालन करने में क्लेश सहने बाले गृहस्थों का जो भार्ग है, उसी से तुम चलो।"
निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार की युक्तियों, सूक्तियों और तर्कों से युक्त उलटी-सीधी शिक्षा की बातें कहकर मोह-ममता में लिपटे हुए स्वजन अपने गृहस्थपक्षीय सम्बन्ध के कारण आकृष्ट करके अपने पालन-पोषण की बात को बार-बार दोहराते हैं। परन्तु साधक को अपने संयममार्ग पर दृढ़ रहना चाहिए।
किन्तु जो अपरिपवव एवं संयम में शिथिल साधु होता है, वह संथम रो कैसे लुढ़क जाता है, इसे आगामी गाथा में देखिए
मूल पाठ अन्ने अन्नेहि मुच्छिया मोहं जंति नरा असंवुडा । विसमं विसमेहि गाहिया, ते पावेहि पुणो पगब्भिया ।।२०।।
संस्कृत छाया अन्येऽन्गच्छिताः, मोहं यान्ति नरा असंवृताः । विषम विषमैाहिताः, ते पापैः पुनः प्रगल्भिताः ।।२०।।
अन्वयार्थ (असंवुडा) सर्वविरतिरूप संयमभाव से रहित (अन्ने नरा) दूसरे----अपरिपक्व मनुष्य-साधक (अन्नेहि मुच्छ्यिा ) माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि अन्यान्य पदार्थों में मूच्छित---आसक्त होकर (मोहं जंति) मोहमूढ़ हो जाते हैं । (विसहि पितसं पाहिया) संयमहीन पुरुषों द्वारा असंयम ग्रहण कराये हुए वे पुरुष पुणो पाहि पाभिया) फिर पापकर्म करने में धृष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ कोई संयमहीन साधक स्वजन-सम्बन्धी जनों के उपदेश से मातापिता आदि अन्यान्य पदार्थों में आसक्त होकर मोहमूढ़ बन जाते हैं । असंयमी पुरुषों द्वारा असंयम ग्रहण कराये हए वे भ्रष्ट साधक फिर धृष्ट होकर बेखटके पापकर्म करने में जुट जाते हैं।
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