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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-प्रथम उद्देशक
इसी गाथा के सन्दर्भ में शास्त्रकार पापकर्मों से विरत होने का उपदेश अगली गाथा में देते हैं--
मूल पाठ तम्हा दवि इक्ख पंडिए पावाओ विरतेऽभिनिव्वुडे ।' पणए वीरे महावीहि, सिद्धिपहं णेआउयं धुवं ॥२१॥
___ संस्कृत छाया तस्माद् द्रव्य ईक्षस्व पण्डितः, पापाद् विरतोऽभिनिर्वृतः । प्रणता वीरा महावीथीं, सिद्धिपथं नेतारं ध्रुवम् ।।२१।।
अन्वयार्थ (तम्हा) इसलिए (दवि) भव्य-मोक्षगमन के योग्य अथवा राग-द्वषरहित होकर (इक्ख) विचार करो--अन्तनिरीक्षण करो। (पंडिए) हे पुरुष ! सद्-असद्विवेक से युक्त तथा (पावाओ विरते) पापकर्म से निवृत्त होकर (अभिनिव्वुडे) शान्त हो जाओ। (वीरे) वीर-कर्मों को विदारण करने में समर्थ पुरुष (महावीहिं) मोक्ष की महान् पगडंडी-महामार्ग को (पणए) प्राप्त करते हैं, जो (सिद्धिपह) ज्ञानादि से युक्त सिद्धि का पथ, (णेआउयं) मोक्ष की ओर ले जाने वाला और (धुवं) निश्चल अथवा निश्चित है।
भावार्थ माता-पिता आदि के मोह में फंसकर संयमपथ से भ्रष्ट जीव पाप करने में धृष्ट हो जाते हैं, इसलिए हे पुरुष ! तुम मुक्तिगमन के योग्य अथवा रागद्वषरहित होकर विचार करो। हे पुरुष ! सत असत के विवेक से युक्त, पापों से विरत और शान्त हो जाओ। कर्मों को विदारण (नष्ट) करने में समर्थ पुरुष मुक्ति के उस महामार्ग को प्राप्त करते हैं, अथवा उस महापथ पर चलते हैं, जो मोक्ष के पास ले जाने वाला सिद्धिमार्ग और ध्र व है।
व्याख्या
वीर ही मोक्ष के महापथ को पाते हैं ! पूर्वगाथा में बताया गया था कि जो साधक माता-पिता आदि कुटुम्बीजनों के स्नेहबन्धन में पड़कर संयमभ्रष्ट हो जाते हैं, और फिर वे बेधड़क होकर पापकर्म
१. किसी-किसी प्रति में 'विरतेऽभिनिव्वुडे' के बदले 'विरए अभिनिव्वुडे' पाठ है ।
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