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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन--प्रथम उद्देशक
वाग्जाल में नहीं फंसेगा। निष्कर्ष यह है कि साधु को ये और इस प्रकार के अन्य अनुकल उपसर्गों के आने पर सावधानी और दृढ़ता रखनी चाहिए।
मूल पाठ जइ कालुणियाणि कासिया, जइ रोयंति य पुत्तकारणा। दवियं भिक्खू समुठ्ठियं, गो लभंति ण संठवित्तए ॥१७॥
संस्कृत छाया यदि कारुणिकानि कुय्युः, यदि रुदन्ति च पुत्रकारणात् । द्रव्यं भिक्षु समुत्थितं न लभन्ते न संस्थापयितुम् ॥१७।।
अन्वयार्थ (जइ) यदि वे (कालुणियाणि कासिया) करुणापूर्ण वचन बोलें या करुणाजनक कार्य करें (य) और (जइ) यदि वे (पुत्तकारणा) अपने पुत्र के लिए (रोयंति) रुदन करें, तो भी (दवियं) भव्य मुक्तिगगन के योग्य, (समुट्ठियं) मोक्ष साधना में समुद्यत (शिक्खू ) साधु को (णो लभंति) प्रव्रज्या से भ्रष्ट नहीं कर सकते, तथा (ण संवित्तए) न वे उसे गृहस्थलिंग में स्थापित कर सकते हैं ।
भावार्थ साधू के माता-पिता आदि स्वजन उसके निकट आकर यदि करुण वचन बोलें, कातरतापूर्वक दीन-हीन स्वर में कहें, या करुणाजनक कार्य करें, तथा यदि वे अपने पुत्र के लिए रोयें-विलाप करें, तो भी साधुधर्म का पालन करने में तत्पर, मुक्तिगमन के योग्य उस परिपक्व साधु को वे साधुजीवन से भ्रष्ट नहीं कर सकते और न ही वे उसे पुनः गृहस्थवेष में स्थापित कर सकते हैं।
दाख्या
परिपक्व एवं सावधान साधु को पहिचान झाबु की परिपक्वता, दृढ़ता एवं सावधानी का पता उस समय लगता है, जब उसके सामने अनुकूल परीवह आते हैं। उनके भूतपूर्व गृहस्थपक्ष के माता, दादी, नानी, मौसी या पिता, बाबा, नाना आदि आकर उसके सामने रोने-धोने लग जाएँ, उसके सामने करुणापूर्ण वचन बोलने लगे अथवा कोई करुणाजनक ऐसा कार्य कर बैठ, जिससे साधु झटपट पिघल जाए और अपने साधुजीवन से भ्रष्ट होकर पुन: गृहस्थजीवन में चला जाए। किन्तु परिपक्व एवं सावधान साधु ऐसे करुणाजनक प्रसंगों में मन को कठोर बनाकर दृढ़ता से प्रतिकार करता है। अगर उस मुनि की
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