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________________ ३१० सूत्रकृतांग सूत्र आदि वृद्ध दीक्षा छोड़कर घर चलने की चाहे जितनी प्रार्थना करें,, चाहे प्रार्थना करते-करते उनका गला सूख जाय, वे भले ही थक जायँ, परन्तु वस्तुतत्त्व 'के ज्ञाता साधु को वे मनाकर अपने अधीन नहीं कर सकते । व्याख्या अनुकूल उपसर्ग : मुनि की दृढ़ता जिसके अगार अर्थात् घर-बार नहीं है, अर्थात् गृह त्याग करके जो प्रव्रजित ही चुका है, वह अनगार कहलाता है । ऐसे अवगार तथा संयमपालनार्थ जो एषणासमिति के पालन में उद्यत है जिसने विशिष्ट तपश्चर्या द्वारा अपने शरीर को तपा डाला है, ऐसे परिपक्व श्रमण के जीवन में भी कई बार अनुकूल उपसर्ग आते हैं, उन अनुकूल उपसर्गों में उसे गाफिल नहीं रहना है । जरा-सा भी असावधान रहा तो उसका लोग अपहरण कर लेंगे, उसका वर्षों का तपा तपाया जीवन शीघ्र ही मिट्टी में मिला देंगे; उसकी वर्षों की साधना उसके तथाकथित कुटुम्बीजन हितैषी बनवा टप्ट कर देंगे। कौन-से अनुकूल उपसर्ग और कौन-से उसके कुटुम्बीजन, कैसे उसकी साधना को मटियामेट कर सकते हैं ? इसे बताने एवं तपस्वी श्रमण को पूर्ण सावधान एवं संयम में ढ़ करने के लिए कहते हैं 'डहरा बुढा य पत्थए आशय यह है कि ऐसे परिपक्व श्रमण के सामने अनुकूल उपसर्ग का एक नमूना देखिये । उसके गृहस्थपक्ष के बेटे पोते आदि या बड़े-बूढ़े मातापिता, मामा, नाना आदि उसके पास आकर विनती करें - "आपने बहुत वर्षों तक संयम पालन कर लिया, अब तो आप यह सब छोड़छाड़ कर वर चलिए और हमारा पालन कीजिए। आपके सिवाय हमारा कोई आधार नहीं है। एकमात्र आप ही हमारे पालक हैं । हम आपके बिना निराधार दीन-दुःखी हो रहे हैं । अतः अब देर मत करिए, झटपट पर चलिए और हमें संभालिए । " इस प्रकार वे बार-बार रो-रोकर, दीनता और करुणा का नाटक करके गुनि को कायल करने और अपने धर्म से विचलित करने की कोशिश करें । उस समय मुनि उसे अनुकूल परीषह जानकर सावधान हो जाए। अगर साथ सरधान और मन का मजबूत होगा तो चाहे प्रार्थना करते करते उनका गला सूख जाय, अथवा वे थक जायँ, परन्तु परिपक्व सावक अपने लक्ष्य से एक इंच भी इधर-उधर नहीं होगा, वह उन्हें यथायोग्य उत्तर देकर विदा कर देगा, लेकिन उनके वारणास में बिलकुल न फँसेगा । वे संयम में दृढ़ उस साधु को चाहे जितना प्रयत्न, अनुनय-विनय करके भी पा नहीं सकते, मना नहीं सकते । यहाँ मूलपाठ में 'अवि सुस्से' शब्द है, उसका संस्कृत में 'अपि श्रोष्ये' रूप भी बनता है । जिसका अर्थ होता है, वह साधु उनकी बात सुनेगा भी, किन्तु उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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