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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - प्रथम उद्देशक
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तपरूपी पाँखें फड़फड़ाएगा तो उसके आत्मा पर लगी हुई कर्मरूपी धूल उसी तरह झड़ जाएगी, जिस तरह पक्षिणी अपने अंग पर लगी हुई धूल को पाँखें फड़फड़ाकर झाड़ देती है ।
अहिंसाधर्मी साधक माहन कहलाता है, अर्थात् ' मा + हन - किसी जीव को मत मारो' इस प्रकार की जिसकी उद्घोषणा एवं प्रवृत्ति है, उसे 'माहन' कहते हैं । यहाँ तप के पर्यायवाची उपधान शब्द का प्रयोग किया गया है । उप-मोक्ष के समीप, धान - स्थापित करना, उपधान । दवि शब्द का संस्कृतरूप होता है - द्रव्य, जिसका अर्थ टीकाकार ( शीलांकाचार्य) ने भव्य किया है अर्थात् मोक्षगमन के योग्य |
निष्कर्ष यह है कि मोक्षगमन के योग्य उपधान आदि तप करने वाला तपस्वी प्रधान साधु अपने ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को नष्ट कर देता है ।
आगामी गाथाओं में अनुकूल उपसर्गों से साधक को सावधान रहने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं
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मूल पाठ उट्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठिअं तवस्सिणं ।
डहरा बुड्ढा य पत्थए, अवि सुस्से ण य तं लभेज्ज णो ।। १६ ।।
संस्कृत छाया
उत्थितमनगारमेषणां श्रमणं स्थानस्थितं तपस्विनम् ।
दहरा वृद्धाश्च प्रार्थयेयुरपि शुष्येयुर्न च तं लभेरन् ॥ १६॥
अन्वयार्थ
उसके बूढ़े माता-पिता आदि
( अणगार) गृहरहित मुनि ( एस ) एषणा के पालन के लिए ( उट्ठियं ) उत्थित -- तत्पर, ( ठाणठियं ) अपने संयमस्थान में स्थित ( तवस्सिणं समणं ) तपस्वी श्रमण को (डहरा ) उसके लड़के - बच्चे, ( बुड्ढा य) ( पत्थर) प्रव्रज्या छोड़ देने के लिए चाहे प्रार्थना करें, प्रार्थना करते-करते उनका गला सूख जाय, वे थक जायँ, को ( णो लभंज्ज) पा नहीं सकते, मना नहीं सकते, अथवा अपने अधीन नहीं कर सकते ।
(अवि सुस्से य) और चाहे
(तं) परन्तु वे उस श्रमण
भावार्थ
घर-बार छोड़कर अनगार बने हुए तथा एषणा - पालन में तत्पर संयमधारी तपस्वी श्रमण के पास आकर यदि उसके बेटे-पोते या माँ-बाप
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