________________
३०८
सूत्रकृतांग सूत्र
प्रकार है---विविध प्रकार की या विशिष्ट हिंसा को 'विहिंसा' कहते हैं । उस विहिंसा को न करना 'अविहिंसा' है। साधु को विकट से विकट प्रसंग में भी अविहिंसाधर्म पर डटे रहना चाहिए। अन्त में साधक को परमहितैषी वीतराग प्रभु के इस आदेश को शिरोधार्य करने हेतु शास्त्रकार कहते हैं कि मुमुक्षु साधकों के लिए परीषह-उपसर्ग के समय अहिंसाधर्म पर डटे रहने का आदेश हम अपनी ओर से नहीं कहते, यह मुनीन्द्र सर्वज्ञ प्रभु ने फरमाया है कि यही अनुधर्म समयानुकूल य मोक्षानुकूल है।
अगली गाथा में अहिंसाधर्म के परिपालन के फल के सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ सउणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय धंसयई सियं रयं । एवं दविओवहाणवं कम्मं खवइ तवस्सिमाहणे ॥१५॥
संस्कृत छाया शकुनिका यथा पांसुगुण्ठिता विधूय ध्वंसयति सितं रजः । एवं द्रव्य उपधानवान् कर्म क्षपयति तपस्वी-माहनः ।।१५।।
अन्वयार्थ (जह) जैसे (पंसुगुंडिया) धूल से भरी हुई (सउणी) पक्षिणी (विहुणिय) अपने अंगों या पंखों को फड़फड़ाकर (सियं रयं) शरीर में लगी हुई रज को (धंसयई) झाड़ देती है, (एवं) इसी तरह (दवि) भव्य, (ओवहाणवं) उपधान आदि तप करने वाला (तवस्सि) तपस्वी (माहणे) माहन-अहिंसाव्रती पुरुष (कम्म) कर्म को (खवइ) नाश करता है ।
भावार्थ जैसे पक्षिणी अपने शरीर पर लगी हुई धूल को अंग या पंख फड़फड़ा कर झाड़ देती है, वैसे ही अनशन आदि तप करने वाला अहिंसाप्रधान भव्यपुरुष (तपस्या एवं अहिंसाधर्म के पालन से) कर्म को झाड़ (नष्ट कर) देता है।
व्याख्या
अहिंसाधर्म के परिपालन का फल
अहिंसाधर्म के परिपालन के लिए साधक को अहिंसाभगवती के दो पाँखोंसंयम और तप की आराधना करनी पड़ती है। जब अहिंसा-साधक संयम और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org