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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ३०७ पोषण करता है, अपना धर्म-पालन की शरीर से करता है । किन्तु कई बार दुष्काल, रोग, कम आहारलाम, आदि परीषहों के या देव, मनुष्य यातिर्यञ्च के द्वारा कृत उपसर्गों कष्टों के प्रसंग आ जाते हैं। उस आहारानी तो दूर रहा, शरीर पर भी आफत आ जाती है । ऐसे समय में अहिंसाधर्म का उत्कृष्ट आराधक मुनि क्या करे ? क्या वह अपने शरीर को छोड़ दे या प्रतिकूल व्यक्तियों (जीवों) का सामना करे, या प्राकृतिक प्रकोपों के समय श्रमणधर्म को छोड़कर आधाकर्मादि हिंसाजन्य आहारादि लेकर अपने शरीर को पोषण दे । इसी के उत्तर में यह गाथा प्रस्तुत की गयी है " धूपिया कुलिये किसए देहमणसणाइहि ।' शास्त्रकार का आशय यह है कि ऐसे किसी भी परीषह या उपसर्ग के समय साधु घबराए नहीं । वह यह सोचे कि मैं इतने समय से शरीर को तो आहारादि से पोपण देता ही आ रहा हूँ । कभी यह दुष्काल या अन्य आहारादि का संकट उपस्थित हो जाए तो वह शरीर पर से ममत्व हटाकर उसे अनशन आदि (उपवास आदि) तप से ऐसे ही दुर्बल ( पतला ) कर दे, जैसे गोबर, मिट्टी आदि से लीपी हुई दीवार पर चढ़े हुए लेप को हटाकर वह पतली कर दी जाती है। तात्पर्य यह है कि शरीर के बढ़े हुए रुधिर, मांस को तपस्या के द्वारा सुखा डालना चाहिए और सर्दी, गर्मी आदि परीषों को सहना चाहिए। मांस और रुधिर की शरीर में कमी करने के इस उपाय को सहिष्णुभाव से अजमाने पर शरीर के पोषण के लिए आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार ( जिसमें प्राय: हिंसा की सम्भावना है) लेने की आवश्यकता नहीं रहेगी । जहाँ तक शरीर को छोड़ने का सवाल है, जैनशास्त्रों की यह आज्ञा नहीं है कि सशक्त और धर्मपालन के लिए सक्षम चलते-फिरते शरीर को यों ही आवेश में आकर त्याग दे । इसीलिए यहाँ भी शरीर को कृश करने का विधान किया है । आचारांगसूत्र में भी इसी तरह का एक विधान मिलता है - ' कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पा' (अपने शरीर को कृश कर डालो, कसो, जीर्ण कर डालो) । मतलब यह है कि साधु अगर ऐसे विकट प्रसंगों पर आहार-पानी का गुलाम बन जाएगा तो उसके जीवन में आर्तव्यात की भी सम्भावना है और आर्तध्यान भावहिंसा है। इसी प्रकार जो प्रतिकूल देव, मनुष्य या तियंच हमला करें या अन्य किसी प्रकार की क्षति पहुँचाएँ तो भी समभाव से सहन करें, उनके प्रति किसी प्रकार का द्वेष- रोष न करे, प्राकृतिक प्रकोपों के समय भी अहिंसावर्म पर डटा रहे । इसी बात को शास्त्रकार घोनित करते हैं - 'अहिंसामेव पव्वए ।' अर्थात् ऐसे विकट प्रसंगों पर अहिंसादर्म का ही पालन करे, 'ए' का अर्थ प्रकर्ष रूप से गति करे --अर्थात् डटा रहे' भी होता है | अहिंसा के बदले यहाँ 'अहिंसा' प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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