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सूत्रकलाग सूत्र
अतः ज्ञानादिगुणसम्पन्न और आत्मालाण में तत्पर संयमी विचारशील साध पूर्वोक्त दृष्टि से मोचकर क्रोधादि पर शिकन करे और धीरतापूर्वक शीतोष्णादि परीषह सहन करे । यही इस गाथा का निष्कर्ष है।
आगामी माथा में शास्त्रकार परीयाजय का उपदेश देते हैं .....
धूणिया कुलियं व लेववं, शिक्षा देहमणसणाझाह । अविहिंसामेव पव्यए अणध को मुगिणा पवेदितो ।।१४
__ संस्कृत छाया धूत्वा कुड्यं च लपवत्, कर्शयेद्दे हमनशनादिभिः । अधिहिसामेव प्रव्रजदनुधर्मो निता प्रवेदितः ।।१४।।
अन्वयाथ (लेब) जैसे लीपी हु (लेवाली मौत ----दीवारणिया प गिराकरण .. पतली कर दी जाती है, वैसे ही (अरसाइहि पद का उपनाई आने पर अनशन आदि तपश्चर्या के द्वारा (देह) शरीर को किसए) कुश कर देना --- सुपा देना चाहिए। (अविहिकामे ३) सपा अहिंसाधर्म का ही (पए) पालन करना चाहिए। (अणुधम्मो) यही मोक्षानुकल या समयानुकल (युगानुकल धर्म (मुणिणा) मुनीन्द्र सर्वज्ञ प्रभु ने (पवेदितो) कहा है।
भावार्थ जैसे लीपी हुई दीवार पर चढ़े हुए लेप को गिराकर वह पतली और क्षीण कर दी जाती है, वैसे ही वर्षों से महारादि से पुष्ट शरीर को परीपह या उपसर्ग का अवसर आने पर अनशन आदि तपश्चर्या के द्वारा कृश-दुर्बल कर देना चाहिए; क्योंकि ऐसे समय में साधक को अहिंसाधर्म का ही पालन करना चाहिए । यही समयानुकूल या मोक्षानुकूल धन मुनीन्द्र सर्वज्ञ प्रभु ने फरमाया है।
हाख्या परीषह एवं उपसर्ग के समय भुनि का
साधक जब साधना करता है, तो शरीर बीच में आकर कई बार अपनी अनुकूल या प्रतिकूल माँग उपस्थित करता है। मुनि तो अपनी मर्यादा में रहते हुए संयम साधना करते हुए भिक्षाचरी में जो कुछ मिल जाता है, उसी में ही शरीर का
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