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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-प्रथम उदै शक ३०५ आदि कष्ट आ पड़ने पर घबराकर हाय-तोबा मचाने लगता है. किन्तु संयमवीर पुरुष सर्दी-गर्मी आदि परीषह आने पर यह सोचे कि केवल में ही इनसे पीड़ित नहीं किया जाता, किन्तु संसार के सभी प्राणियों को ये पीड़ित करते हैं। अत: परीषहों का आक्रमण होने पर वह घबराए नहीं, बल्कि दृढ़तापूर्वक राग-द्वेष-कषायादि से रहित होकर समभावपूर्वक उन्हें सहन करे । सम्यग्ज्ञानादि से सम्पन्न पुरुष यह सोचे कि अविवेकी प्राणी कष्ट आने पर हाय-तोबा मचाते हुए लाचारी से उसे सहन करते हैं, जिससे वे कष्ट सहकर भी निर्जरारूप फल को प्राप्त नहीं कर सकते, मैं समभावपूर्वक कष्ट सहँगा तो निर्जरा रूप फल प्राप्त कर सकूँगा । किसी सुज्ञ पुरुष ने ठीक ही कहा है---- क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं, त्यक्त न सन्तोषतः, सोढा दुःसहशीलतापपवनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहनिशं नियमितप्राणैर्न तत्त्वं परः, तत्तत्कर्मकृतं सुखाथिभिरहो तैस्तैः फलवञ्चिताः॥ क्षमा तो की, लेकिन क्षमाधर्म समझकर नहीं की, घर में होने वाले सुख का त्याग तो किया, लेकिन संतोष से प्रेरित होकर नहीं, दु:सह सर्दी, गर्मी, हवा आदि के कष्ट तो सहे, किन्तु तपश्चरण नहीं किया, दिन-रात बिना श्वास रोके धन का ध्यान तो किया; मगर निर्द्वन्द्व होकर परमात्मतत्त्व-आत्मतत्त्व का चिन्तन नहीं किया। अहो ! इन अज्ञानी सुखाभिलाषियों ने सुख-प्राप्ति के लिए तपस्वी मुनियों की तरह वे सभी कर्म किये, लेकिन उनके फलों से वे वंचित ही रहे। क्योंकि संयमी विचारशील पुरुष जो कष्ट सहते हैं, वे उनके गुणवृद्धि के कारण होते हैं, जबकि सुखार्थी जो कष्ट सहते हैं वे उलटे कर्मबन्ध के कारण हो जाते हैं। किसी नीतिकार ने ठीक ही कहा है-- कार्यक्षुत्प्रभवं कदनमशनं शीतोष्णयोः पात्रता पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृहेवहन्त्यवनति तान्युन्नति संयमे दोषाश्चाऽपि गुणा भवन्ति हि नृणां योग्येपदेयोजिताः ।। भूखे रहने से शरीर में आई दुर्बलता, खराब अन्न का आहार, शीत और उष्ण के दुःख का सहना, तेल न मिलने से बालों का रूखापन, विस्तर के बिना केवल जमीन पर सो जाना इत्यादि बातें जो गृहस्थ के लिए अवनति के चिह्न मानी जाती हैं, वे ही स्वभाव से सहने वाले, तितिक्षु संयमी मुनि के लिए उन्नतिकारक समझी जाती हैं। इससे सिद्ध होता है कि योग्य पद (स्थान) पर स्थापित किये (जोड़े) दोष भी गुण हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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