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सूत्रकृतांग सूत्र
गृहस्थपक्षीय पत्नी आकर कहे - "हे कन्त ! हे नाथ ! हे स्वामिन् ! हे अतिप्रिय ! प्राणवल्लभ, आप तो इतने निष्ठुर हो गए कि घर भी नहीं चलते। आपके for मुझे सारा घर सूना-सूना लगता है । बच्चे आपके बिना रो रहे हैं, उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता । मुझ पर नहीं तो, उन बच्चों पर दया करके ही घर चलो । आपके घर आ जाने से घर में चहल-पहल हो जायगी । मेरा भी जीवन आनन्द से बीतेगा | अपने बूढ़े माता-पिता की ओर देखो । वे आपके बिना बेचैन हैं । आपके घर आने से उनका भी मन हरा-भरा रहेगा ।" अथवा उक्त साधु के स्वजन आकर रोते - विलाप करते कहें - " एक बार तो घर चलो । कुलदीपक पुत्र के बिना सारा कुल, घर या वंश सूना है । और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी वंशबुद्धि के लिए एक पुत्र उत्पन्न करके फिर तुम पुनः संयम पालन करना । हम फिर तुम्हें रोकेंगे नहीं । सिर्फ एक पुत्र की हमारी प्रार्थना स्वीकार कर लो ।”
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ऐसे अनुकूल उपसर्ग के समय ही संयमी साधु की दृढ़ता और परिपक्वता की परीक्षा होती है । जो परिपक्व एवं सुदृढ़ श्रमण होता है, उसके सामने उसके गृहस्थपक्ष के घरवाले आकर चाहे जितने रोयें धोयें, चाहे जितना करुण विलाप करें, चाहे जितना अनुनय-विनय करके उसे अपने घर ले जाने की कोशिश करें, यहाँ तक कि वे उसके सामने यह कहें कि तुम घर नहीं चलते हो तो हम तुम्हारे सामने यहीं प्राण त्याग कर देगे, यह नरहत्या का पाप तुम्हें लगेगा । चलो, उठो, जिद मत करो, हमारी बात मान जाओ, हम तुम्हारे लिए सब तरह की सुख-सामग्री जुटा देंगे । तुम्हारी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे । परन्तु वह जरा भी विचलित नहीं होता,
पिघलता है और न उसके झांसे में आकर अपना बाना छोड़कर घर चलने को तैयार होता है । ऐसे परिपक्व साधु के सामने चाहें जितने अनुकूल उपसर्ग देने वाले आ जाएँ, वे उसे अपनी साधना से एक इंच भी इधर-उधर नहीं कर सकते, न ही उससे वेष- परिवर्तन करा सकते हैं ।
मूल पाठ
जइ विय कामेहिलाविया, जइ णेज्जाहि ण बंधिउं परं जइ जीवियं नावकखए णो लब्भंति ण संठवित्तए
।
॥ १८ ॥
संस्कृत छाया
यद्यपि च कामैर्लावयेयुः, यदि नयेयुर्बध्वा गृहम्
यदि जीवितं नावकांक्षेत, नो लप्स्यन्ति न संस्थापयितुम् || १८ ||
अन्वयार्थ
( जइ विय) चाहे साधु के पारिवारिकजन ( कामेहि साविया) उसे कामभोगों
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